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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


उस ज़माने में जब कि शिक्षा ऊँची श्रेणीवालों तक ही सीमित थी और आज की शिक्षा संबंधी सुविधाओं का नाम भी न था, इस निर्धन बालक की पढ़ाई-लिखाई क्या हो सकती थी। हाँ, वह स्वभावतः तीक्ष्णबुद्धि, परिश्रमी और ढंग से काम करनेवाला था और यह अभ्यास वय के साथ-साथ दृढ़ होते गए। अभी वयस्क भी न होने पाया था कि जीविकोपार्जन की आवश्यकता ने घर से बाहर निकाला। शेरशाह सूरी उन दिनों भारत का भाग्य-विधाता हो रहा था। और उसका मंत्री मुज़फ़्फ़र खाँ ज़मीन का बन्दोबस्त करने में व्यस्त था। उसकी सरकार में साधारण क्लर्क का काम करने लगा। पर नैसर्गिक प्रतिभा और सहज गुण कब छिपे रहते हैं ? अपनी कार्य-कुशलता और श्रमशीलता की बदौलत आगे-आगे रहने लगा, और दफ्तर के अनेक विभाग उसके अधीन हो गए। चूँकि आरंभ से ही उसको पुस्तकाध्ययन और नई-नई बातों को जानने का शौक था, बहुत जल्द दफ्तर के कामकाज और सारी बातों का वह पूरा जानकार हो गया। इस बीच जमाने ने करवट बदली। सूरी वंश का ह्रास हुआ और हुमायूँ का भाग्य जागा; पर वह भी कुछ दिनों में स्वर्ग को सिधारा और अकबर ने राजमुकुट सिर पर धरा। वह आदमी को परखने वाला था। एक ही निगाह में ताड़ गया कि यह नौजवान मुंशी एक दिन जरूर नाम करेगा। उसे अपनी सरकार में ले लिया और दरबार में रहने का हुक्म दिया।

पर अकबर का दरबार वह उद्यान न था, जहाँ कोई निरा सिपाही या निरा मुंशी यश और सम्मान के फूल चुन सकता। टोडरमल अब तक कलम के जौहर दिखाता रहा। पर सन् १५६५ ई० में आवश्यकता हुई कि वह यह दिखाए कि मैं किस रग-पट्ठे और दमखम का सिपाही हूँ। उन दिनों हुसैन कुली खाँ-ख़ाँजमा ने फसाद पर कमर बाँधी थी। वह अपने समय का बड़ा ही रणकुशल, पराक्रमी योद्धा था, और कितने ही स्मारकों में अपने साहस तथा वीरता का प्रमाण दे चुका था। खुद तो बिहार और जौनपुर के सूबे दबाए बैठा था और अपने छोटे भाई बहादुरखाँ को, जो वीरता और साहस में उसी का जोड़ी था, अवध की ओर रवाना किया था।

अकबर ने मीर मुइज्ज़ुलमुल्क को भेजा कि बहादुरखाँ को गिरफ्तार करके दरबार में हाजिर करे। पर उससे कोई काम न बनते देखकर टोडरमल को भेजा कि विकृत मस्तिष्क नमकहरामों को चेतावनी दे दे और इससे काम न निकले, तो कान उमेठकर अक्ल ठिकाने कर दे। टोडरमल तुरन्त इस मुहिम पर रवाना हुआ, पर मुकाबला ऐसा करारा था और मीर मुईज्ज़ुलमुल्क, जिसके नाम सेनापतित्व था, ऐसा कच्चा सिपाही था कि शाही फ़ौज को पीछे हटते ही बना। हाँ, धन्य है टोडरमल को कि मैदान से न टला और इस हार में भी मानो उसकी जीत ही रही। अकबर ने पहली बार परीक्षा ली थी, उसमें पूरा उतरा। फिर तो उसकी लेखनी की तरह उसकी तलवार भी सर्राटे भरने लगी। जिस मुहिम पर जाता, विजय लक्ष्मी उसके गले में जयमाल डालती। चित्तौड़, रणथंभौर और सूरत की विजयों में उसने अपना लोहा मनवा दिया और अपने समय के प्रौढ़ सम्मानित सेना नायकों में गिना जाने लगा।

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