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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


गेरीबाल्डी ने पहले पोप के दरबार में नौकरी की दरख्वास्त दी। उसने पोप के बारे में जो अफ़वाहें सुनी थीं, उनसे उसको विश्वास था कि वह अवश्य मेरी सेवा स्वीकार करेगा और मुझे आस्ट्रियावालों का सिर कुचलने का अच्छा मौका हाथ आएगा। पर पोप के सदुद्देश्यों की पोल बहुत जल्दी खुल गई। उसने गेरीबाल्डी को नौकर रखने से ही इनकार नहीं किया, कुछ ऐसी कार्यवाइयाँ भी कीं, जिनसे प्रकट हो गया कि वह भी ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ ही हैं। यहाँ से निराश होकर गेरीबाल्डी ने पेडमांट के बादशाह के सामने अपनी तलवार पेश की। यह वही हज़रत थे, जिन्होंने पहले गेरीबाल्डी को बगावत की साजिश करने के अपराध में देश निकाले का दण्ड दिया था। पर अब जनता के साथ विरोध करने में कुशल न देख, खुले तौर पर आस्ट्रिया का विरोध आरंभ कर दिया था, पर संभवतः यह अधिकारियों को धोखे में डालने कि लिए ही था। गेरीबाल्डी को यहाँ से भी कोरा जवाब मिला। इस बीच जन-विप्लव से भयभीत होकर पोप ने गेरुवा बाना उतार फेंका और रोम से भाग निकला।

पोप के पलायन की खबर ज्यों ही मशहूर हुई, निर्वासित देशभक्त अपने-अपने गुप्त स्थानों से निकलकर रोम की ओर दौड़े। और वहाँ एक पार्लियामेंट स्थापित हुई, जो चन्दरोजा होने कारण ‘अस्थायी सरकार’ कहलाती है। यह दिन इटली के इतिहास में बड़ा शुभ था। जनता खुशी से फूली न समाती थी। इस सरकार ने गेरीबाल्डी की सेवा सहर्ष स्वीकार की और वह स्वयंसेवकों का एक दल लेकर सीधा उत्तर की ओर चला। यहाँ अनेक अवसरों पर उसने साहस और वीरता के जो काम किए, उन पर वीर से वीर सैनिक को गर्व हो सकता है। सतत सफलता से उसका यश और सम्मान दिन-दिन बढ़ता गया। उसकी आदत शत्रु की शक्ति का अन्दाज़ा करने की न थी, और अपने साथियों की संख्या का भी वह कुछ ख्याल न करता था। उसकी राजनीति यह थी कि जहाँ दुश्मन को सामने देखा और टूट पड़ा। इसमें वह तनिक भी आगा-पीछा न करता। उसके आक्रमण में कुछ ऐसा बल होता था कि प्रायः सभी अवसरों पर उसकी यह युक्ति सफल हो जाती थी। अपने से दसगुनी सेना को, जो हरबे-हथियार से लैस होती थी, कितनी ही बार उसने अपने नौसिखिए, अनुभवहीन रँगरूटों से हरा दिया। इसका कारण यह था कि उसके दल का एक-एक आदमी राष्ट्रीयता के नशे में चूर होता था।

मिलान की जनता ने आस्ट्रिया का जोरों से विरोध किया था, इसलिए वह ख़ास तौर से आस्ट्रिया के कोप का भाजन बना हुआ था। गेरीबाल्डी उसकी रक्षा के यत्न में लगा हुआ था कि रोम से डरावनी ख़बरें आईं। मेज़िनी भी स्विटज़रलैण्ड से स्वदेश को लौट रहा था। मिलान में दोनों देशभक्तों का ‘भरत-मिलाप’ हुआ और दोनों साथ-साथ रोम की ओर चले कि वहाँ पहुँचकर पार्लियामेंट का विधान बनाएँ और देश को अव्यवस्था और अराजकता की मुसीबतों से बचाएँ। रोम पर उस समय सब ओर से विपत्तियाँ टूट रही थीं। राष्ट्रीय सरकार के पाँव अभी जमने न पाए थे कि एक ओर से नेपुल्स के बादशाह और दूसरी ओर से बोनापार्ट की सेनाएँ उसका गला घोंटने के लिए आ पहुँचीं। इसके सिवा पोप के जासूसों और पादरियों ने जनसाधारण के अंधविश्वास का लाभ उठाकर राष्ट्रीय सरकार की ओर से उन्हें भड़ाकाना शुरू कर दिया।

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