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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


यहाँ नेपुल्स के बादशाह ने प्रजा को सता-सताकर विप्लव के लिए तैयार कर रखा था। इन उत्पीड़ितों ने ज्यों ही सुना कि गेरीबाल्डी उनकी सहायता को आ रहा है, अपनी-अपनी तैयारियों में लग गए और बड़े उत्साह से उसका स्वागत किया। मसाला तैयार था ही, गेरीबाल्डी ने आते ही आते प्लरमो पर ऐसा जोर का धावा किया कि शाही फ़ौज क़िलाबन्द हो गई और उसने प्राण-भिक्षा माँगी। जनता का उस पर ऐसा विश्वास था कि उसने उसे अपना उद्धारक मानकर सिसली के अधिनायक की उपाधि दी।

शाह इमानुएल पहले ही से इस युद्ध के विरुद्ध थे, इस डर से कि नेपुल्स नरेश आस्ट्रिया से मेल करके कहीं हमारे मुल्क पर हमला न कर बैठे, इस विजय का समाचार मिला, तो गेरीबाल्डी से अनुरोध किया कि अब आप नेपुल्स सरकार को और ज्यादा हैरान न करें, जिसमें वह संयुक्त इटली का अंग बन सके; पर गेरीबाल्डी ने अपनी राय न बदली। पहले तो उसने सिसली से शाही फौज को निकाला, फिर इटली के दक्षिणी समुद्र तट पर उतर पड़ा इसकी खबर पाते ही चारों ओर से जनता उसके दल में सम्मिलित होने के लिए टूटने लगी। मानो वह इसी की प्रतीक्षा में थी। अधिकतर स्थानों में नयी अस्थायी सरकारें स्थापित हो गईं और ३१ अगस्त को जनता ने ‘उभय सिसली के अधिनायक’ (डिक्टेटर) की उपाधि, जो नेपुल्स नरेश को प्राप्त थी, गेरीबाल्डी को प्रदान कर दी। फ्रांसिस के होश उड़ गए। गेरीबाल्डी के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी। पर तीन लड़ाइयों में से एक का परिणाम उसके लिए अच्छा न हुआ। ८ सितम्बर को गेरीबाल्डी नेपुल्स में दाखिल हुआ। इसके दूसरे दिन विक्टर इमानुएल वहाँ का बादशाह घोषित किया गया और सारे राज्य की प्रजा की सहमति से सिसली और नेपुल्स दोनों पेडमांट के राज्य में सम्मिलित कर दिए गए।

राष्ट्र की इस महत्त्वपूर्ण सेवा के बाद, जो उसके जीवन का आधा कार्य कहा जा सकता है, गेरीबाल्डी ने अपनी सेना को तोड़ दिया और अपने जज़ीरे को लौट आया। अब केवल रोम और वेनिस वह स्थान थे, जो अभी तक पोप और आस्ट्रिया के पंजे में फँसे हुए थे। दो साल तक वह अपने शान्तिकुटीर में बैठा हुआ उत्पीड़ित लोगों में स्वाधीनता के भाव भरता रहा। अंत में उसकी कोशिशों का जादू चल गया और वेनिस वाले भी स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयास के लिए तैयार हो गए। अब क्या देर थी ? गेरीबाल्डी तुरंत चुने हुए वीरों की छोटी-सी सेना लेकर चल खड़ा हुआ, पर विक्टर इमानुएल को उसकी यह धृष्टता बुरी लगी। प्रधान मन्त्री केयूर के मर जाने से उसके मन्त्रियों में कोई वीर साहसी पुरुष न रह गया था। सबके सब डर गए कि कहीं आस्ट्रियावाले हमारे पीछे न पड़ जाएँ, इसलिए गेरीबाल्डी को रोकने के लिए सेना भेजी। वह अपने देशवाशियों से लड़ना न चाहता था। जहाँ तक हो सका, बचता रहा, अन्त में घिर गया और युद्ध अनिवार्य हो गया। संभव था कि वह यहाँ से भी साफ़ निकल जाता, पर ऐसे गहरे घाव लगे कि लाचार होकर घर लौट आया और कई महीने तक खाट सेता रहा।

सन् १८६४ ई० में गेरीबाल्डी इंग्लैण्ड की सैर को गया। यहाँ जिस धूमधाम से उसका स्वागत किया गया, जिस ठाट से उसकी सवारी निकाली गई, सम्राटों के आगमन के अवसरों पर भी वह मुश्किल से दिखाई दे सकती है। जो भीड़ गली-कूचों और ख़ास-ख़ास जगहों पर उसके दर्शन के लिए इकट्ठी हुई, वैसा जनसमुद्र कभी देखने में नहीं आया। यह वहाँ १० दिन तक रहा। सैकड़ों संस्थाओं ने मानपत्र दिये; कितने नगरों ने तलवारें और उपाधियाँ भेंट कीं। २२ अप्रैल को वह फिर ज़जीरे को लौट आया।

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