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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


कुछ दिनों से यह विचार हो रहा था कि प्राचीन अप्रकाशित संस्कृत ग्रंथों की खोज की जाए और उनका संग्रह ऐतिहासिक खोज और समीक्षा के लिए विद्वानों के सामने रखा जाए, क्योंकि ऐतिहासिकों का विचार था कि भारत में प्राचीन काल का इतिहास तैयार करने के मसाले की कमी नहीं है। वह जहाँ-तहाँ पुराने खंडहरों और निजी पुस्तकालयों में, आपत्काल में आत्मरक्षा के लिए छिपा पड़ा है। उसके अध्ययन से उस समय के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है; पर इन साधनों को ढूँढ़ निकालना सहज काम न था। यह गुरुकार्य डॉक्टर भांडारकर को सौंपा गया। और उन्होंने जिस योग्यता के साथ उसका संपादन किया, उसकी जितनी भी सराहना की जाय, कम होगी।

केवल बहुसंख्यक अप्रकाशित ग्रन्थ और लेख ही उन्होंने ढूँढ़ नहीं निकाले, उन पर विस्तृत गवेषणापूर्ण रिपोर्ट भी लिखी, जो पांच बड़ी-बड़ी जिल्दों में पूरी हुई हैं। इस क्षेत्र में डॉक्टर भांडारकर ने दूसरों के लिए रास्ता बताने और दिखाने का भी काम किया। उनके श्रम से औरों के लिए ऐतिहासिक अन्वेषण का रास्ता साफ़ हो गया। इस काम में उन्हें कैसी-कैसी बाधाओं का सामना करना पड़ा, इसे विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं। इस देश में जिस आदमी के पास भी कोई पुरानी पोथी है, चाहे वह प्रेम कथा ही क्यों न हो, वह उसे सोना-चाँदी बनाने का नुस्खा समझे बैठा है। और उस पर किसी दूसरे की निगाह पड़ जाना भी उसे सहन नहीं। ऐसे लोगों को मनाना डॉक्टर भांडारकर का ही काम था। आज यह लम्बी-चौड़ी रिपोर्ट विद्वानों और इतिहास-प्रेमियों के लिए आश्चर्य का विषय बन रही है। और संभवतः कुछ दिनों तक लोग उसे गंभीर अध्ययन, शुद्ध वर्गीकरण और ऐतिहासिक अन्वेषण का नमूना समझते रहेंगे।

१८८६ ई० में वियेना में प्राच्यविद्या के पण्डितों का सम्मेलन फिर हुआ। अबकी डॉक्टर भांडारकर ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और इस यात्रा में यूरोप की स्थिति को बारीकी के साथ देखा-समझा। इसके एक साल बाद भारत सरकार ने उन्हें सी० आई० ई० की उपाधि प्रदान कर उनकी विद्वता का समादर किया। अध्ययन और अन्वेषण का यह कार्य जारी रहा। यहां तक कि पेंशन का समय आ पहुंचा और डॉक्टर भांडारकर ने अवकाश ग्रहण कर पूने को अपना वासस्थान बनाया, पर देश को अभी उनकी सेवाओं की आवश्यकता थी। १९०१ में आप बम्बई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनाए गए, जो देश पर उनके सतत उपकारों को स्वीकार करना मात्र था।

उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त डॉक्टर भांडारकर ने बांबे गजेटियर के लिए दक्षिण भारत का प्राचीन इतिहास लिखा, जो प्रत्येक दृष्टि से प्रामाणिक इतिहास कहा जा सकता है। वह घटनाओं की विस्तृत तालिका मात्र नहीं है; किन्तु उससे मुसलमानों के हमले के पहले की सामाजिक अवस्था, रीति-नीति और नियम व्यवस्था का भी परिचय मिलता है। इस इतिहास का मसाला इधर-उधर बिखरा पड़ा था, उसे इकट्ठा करना, विभिन्न घटनाओं का काल निर्णय और इस ‘कहीं का ईंट कहीं का रोडा’ से सुसंबद्ध इतिहास का सुविशाल प्रासाद खड़ा कर लेना कठिन कार्य था।

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