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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


चूँकि बम्बई का वस्त्र-व्यवसाय अभी बच्चा था और मैंनचेस्टर व लंकाशायर से आनेवाले माल का मुक़ाबला न कर सकता था, इसलिए सरकार ने आरंभ में इस माल पर चुंगी लगा दी थी, जिसमें उसका भाव ऊँचा हो जाए और बम्बई के माल की खपत हो। परन्तु विलायत के व्यापारी इस कर का बराबर विरोध किया करते थे। उनके विचार से बम्बई का वस्त्र व्यवसाय अब इतना पुष्ट हो चुका था कि सरकार की ओर से उसे किसी प्रकार की सहायता मिलने की आवश्यकता न थी। इस मौके पर बदरुद्दीन ने ऐसा प्रौढ़ युक्तिसंगत ज्ञानगर्भ वक्तृता की कि आँख रखनेवाले जान गए कि भारत के राजनीतिक आकाश में एक नए नक्षत्र का उदय हुआ।

वह समय भारत की राजनीति में बहुत दिनों तक याद किया जायगा। लार्ड रिपन उस समय हिन्दुस्तान के वायसराय थे, जिनसे अधिक साधु प्रकृति, सहानुभूति प्रवण और न्यायशील वायसराय यहाँ नहीं आया। उनका सिद्धान्त था कि बड़े-बड़े राज्य अपनी सेना और शस्त्रास्त्र के बल से नहीं जीवित रहते, किन्तु अपनी न्यायशीलता और अपने कानूनों के धर्म-संगत होने के बल पर जीते हैं। उस समय हिन्दुस्तान में स्थानीय आत्मशासन की व्यवस्था का अर्थात् म्युनिसिपल और जिला बोर्डों का जन्म न हुआ था। जिले का वह प्रबन्ध भी, जो अब जिला बोर्डों के हाथ में है, जिला मजिस्ट्रेट ही किया करता था। अपने अन्य कर्तव्यों के साथ-साथ शहर की रोशनी, सफाई, सड़कों की मरम्मत, शिक्षा आदि के प्रबन्ध का भार भी उसी पर होता था। स्पष्ट है कि वह इन कर्तव्यों का पालन तत्परता के साथ न कर सकता था, क्योंकि उसे और भी अनेक कार्य देखने पड़ते थे।

लार्ड रिपन ने लोकल सेल्फ गवर्नमेंट अर्थात् स्थानीय आत्मशासन का क़ानून जारी किया, जिसके अनुसार शहर और ज़िले का प्रबन्ध करनेवाली संस्थाओं की उत्पत्ति हुई। रिपन का उद्देश्य इस कानून से यह था कि भारतवासियों को नगर और जिले के प्रबन्ध का अधिकार प्रदान कर उन्हें इस योग्य बनाया जाए कि प्रान्त और देश के प्रबन्ध का भार भी उठा सकें। अब तो ये स्थानीय बोर्ड एक प्रकार से स्वाधीन हैं। अपनी आमदनी और खर्च पर उन्हें पूरा अधिकार है। जनता उनके लिए सदस्य चुनती है। बोर्ड के कर्मचारियों की नियुक्ति सदस्यों के निश्चय से होती है। अध्यक्ष का चुनाव भी बोर्ड ही करता है। हां, सरकार इन बोर्डों की कार्यप्रणाली की निगरानी करती है। इस क़ानून के लिए हमें लार्ड़ रिपन के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। यद्यपि अब भी स्थानीय बोर्ड कभी-कभी सरकार के कोपभाजन हो जाते हैं, पर आम तौर से वह उनके कार्यों में दखल नहीं देती।

लार्ड रिपन ही के समय अलबर्ट बिल भी पास हुआ। इस क़ानून में हिन्दुस्तानी अफ़सरों को अँगरेज़ों को दण्ड दे सकने का अधिकार दिया गया था। उस समय तक उन्हें यह अधिकार न था। इंग्लैंड में एक क़ानून है, जिसके अनुसार अँगरेज़ को अँगरेज़ ‘जूरी’ अथवा पंचायत ही सज़ा दे सकती है। हिन्दुस्तान में अँगरेजों की अच्छी खासी आबादी है; पर कोई अँगरेज़ कितना ही बड़ा अपराध क्यों न करे, कोई हिन्दुस्तानी हाकिम उसके अभियोग का विचार नहीं कर सकता। जब कोई अँगरेज़ किसी अपराध में अभियुक्त होता था, तो अँगरेज़ों की एक पंचायत उसका मुक़दमा सुनने के लिए नियुक्त की जाती थी और मुदकमें का एक फ़रीक़ जब हिन्दुस्तानी होता था, तो अकसर यह पंचायत अभियुक्त की तरफ़दारी किया करती थी और हिन्दुस्तानियों के साथ अन्याय हो जाता था। इसके सिवा यह एक जातिगत भेदभाव था, जिसे भारतीय अपना अपमान समझते थे।

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