लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

121 पाठक हैं

महापुरुषों की जीवनियाँ


१९०३ में जब अलीगढ़ में मुसलिम शिक्षा-सम्मेलन हुआ, तो मिस्टर बदरुद्दीन उसके सभापति चुने गए। इस सम्मेलन में परलोकगत नवाब मुहसीनुलमुल्क और बम्बई के गवर्नर लार्ड बेलिंगटन भी उपस्थित थे, और यद्यपि मिस्टर बदरुद्दीन उस समय बम्बई हाईकोर्ट के जज और सरकारी नौकर थे, फिर भी आपने अत्यंत निर्भीकता तथा स्पष्टवादिता के साथ अपने राजनीतिक विचार प्रकट किए और मुसलमानों को सलाह दी कि अगर वह अपने देश की भलाई चाहते हों, तो उन्हें कांग्रेस में सम्मिलित होकर उसका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिए। इस भाषण में आपने स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में भी ज़ोरदार अपील की। आपका निश्चित मत था कि भारत में जब तक पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी शिक्षा न दी जाएगी, देश उन्नति के सोपान पर न चढ़ सकेगा। उन्होंने ख़ुद अपनी लड़कियों को ऊँचे दरजे की अंगरेजी शिक्षा दिलाई थी, यद्यपि मुसलमानों में उस समय तक यह एक साहस का कार्य था।

मिस्टर बदरुद्दीन परदे के भी विरोधी थे और अपने घर की स्त्रियों को इस बंधन से मुक्त कर दिया था। उनका विचार था कि परदे से शारीरिक और मानसिक ह्रास होता है। आज सुशिक्षित मुसलमानों में परदे का बन्धन उतना कठोर नहीं है। लाहौर, देहली आदि नगरों में शरीफ़जादियाँ बुरक़ा ओढ़े निस्संकोच बाहर निकलती हैं, पर उस समय प्रतिष्ठित महिलाओं का बाहर निकलना समाज में हँसी कराना और लोगों के व्यंग्य बाणों का निशाना बनना था। इससे प्रकट होता है कि जस्टिस बदरुद्दीन कितने दूरदर्शी और समय को पहचाननेवाले व्यक्ति थे।

हिन्दुस्तान में उस समय भी अंगरेजी फैशन चल पड़ा था और आज तो वह इतना व्यापक है कि किसी कालेज या दफ्तर में चले जाइए, आपको एक सिरे से अँगरेजी फैशनवाले ही लोग दिखाई देंगे। उनकी बातचीत भी अधिकतर अँगरेज़ी में होती है। उन्हें न जातीय भाषा से कोई विशेष प्रेम है, न जातीय पहनावे से, न जातीय शिष्टाचार से। वे तो जातीय आचार व्यवहार का विरोध करने में ही अपने सुधार के उत्साह का प्रदर्शन करते हैं। संभवतः उनका मन यह सोचकर प्रसन्न होता है कि कम से कम पहनावा, पोशाक और तौर तरीके में तो हम भी अँगरेज़ों के बराबर हैं। जातीय पहनावा उनके विचार में पुराण-पूजा-प्रमाण है। पर जस्टिस बदरुद्दीन ने हाईकोर्ट की जजी के उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने और अँगरेज़ी की ऊँचे दरज़े की योग्यता रखने पर भी अपनी चालढाल नहीं बदली। अदालत की कुरसी पर हों या मित्रों की मंडली में, वही पुराना अरबी पहनावा बदन पर होता था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book