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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


सन् ५७ के ग़दर में सैयद अहमद खाँ बिजनौर में मुन्सिफ़ थे। यह वह आपत्काल था, जब अँगरेज़ अफ़सर और उनके बीवी-बच्चे बाग़ियों के डर से आश्रय ढूँढ़ते फिरते थे। बाग़ी जिस अँगरेज़ को पा जाते, हद दरजे की बेदर्दी से क़तल कर डालते थे। उस समय बाग़ियों की मरज़ी के खिलाफ़ कोई काम करना खुद अपनी जान ख़तरे में डालना था, पर सैयद अहमद खाँ ने उस कठिन काल में भी न्याय का पक्ष लेने में संकोच न किया और विपद्ग्रस्तों की सहायता में डट गए, जो मनुष्य का नैतिक कर्तव्य है। उनकी कोशिश से कितने ही अँगरेज़ों की जान बच गई। बाग़ियों को उन पर संदेह हुआ। उन्होंने आपके मकान को घेर लिया, उन्हें तरह-तरह की धमकियाँ दीं। यहाँ तक कि उनका मकान उनसे ज़बर्दस्ती खाली करा लिया और उनका माल-असबाब भी लूट लिया। सैयद अहमद खाँ ने धैर्य और दृढ़ता के साथ यह सारी मुसीबतें झेल लीं; पर जिन्हें शरण दी थी, उन्हें बाग़ियों के हवाले न किया। जब विप्लव शान्त हो गया और अँगरेज सरकार की सत्ता देश पर फिर स्थापित हुई, तो बागियों के अपराधों की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई गई और सैयद अहमद उसके सदस्य बनाए गए।

उस समय इस बात का बड़ा डर था कि अपराधियों के साथ निरपराध भी न पिस जाएँ ? आक्रमण करनेवालों के साथ आत्मरक्षा में तलवार उठानेवाले भी सरकार के कोप भाजन न हो जाएँ। सैयद अहमद इसी नेक इरादे से कमेटी में सम्मिलित हुए कि यथासम्भव निरपराधों की रक्षा करें। किसी निजी लाभ या पद-पुरस्कार की उन्हें कदापि कामना न थी। यहाँ तक कि जब एक बाग़ी मुसलमान रईस की बहुत बड़ी जायदाद ज़ब्त कर ली गई और सरकार ने उसे आपकी सेवाओं के पुरस्कार रूप में उन्हें प्रदान करना चाहा, तो उन्होंने उसे धन्यवाद के साथ लौटा दिया। एक विपदग्रस्त भाई की तबाही से लाभ उठाना आनदार इसलामी स्वभाव ने स्वीकार न किया।
 
दो साल बाद सैयद अहमद खाँ ने ‘असबाबे बग़ावत हिन्द’ नाम की पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने तथ्यों और तर्कों से सिद्ध किया कि यह गदर न राष्ट्रविप्लव था, न आज़ादी की लड़ाई और न किसी तरह की साजिश; किन्तु केवल सरकारी सिपाहयों ने अपने अफ़सरों की अवज्ञा की और वह भी अज्ञान और अँधविश्वासवश। चूँकि सरकार का खयाल था कि इस ग़दर को उभारने वाले मुसलमान हैं, इसलिए इस पुस्तक का उद्देश्य यह भी था कि मुसलमानों के सिर से यह इलज़ाम दूर कर दिया जाए और इसमें संदेह नहीं कि सैयद अहमद खाँ को इसमें सफलता मिली। उन्होंने इस पुस्तक को भारत सरकार और पार्लमेंट भेजा और चूँकि सरकार को उनकी राजभक्ति और शुभचिन्ता पर पूरा भरोसा था, इसलिए उसने उनके दिखाए हुए कारणों और दलीलों पर ठंडे दिल से विचार किया और जो शिकायतें उसे ठीक मालूम हुईं, उनको दूर करने का वचन भी दिया। सैयद अहमद खाँ के इस नैतिक साहस की किन शब्दों में बड़ाई की जाए। जिस समय सरकार का रुख सख्ती करने का था और किसी को जबान खोलने की हिम्मत न होती थी कि कहीं उस पर बग़ावत का संदेह न किया जाने लगे, उस समय सरकार के रुख की आलोचना करना और उनकी भूलों का भंडाफोड़ करना देश और जाति की बहुमूल्य सेवा थी। सैयद अहमद खाँ को जो काम सौंपा जाता था, उसे वह दिलोजान से पूरा करते थे। उनका सिद्धान्त था कि जो काम करना हो, उसे दिल से करना चाहिए। बेदिली से या बेगार समझकर वह कोई काम न करते थे। वह मुरादाबाद में थे, जब अवर्षण से फ़सल मारी गई और देश में भयानक दुर्भिक्ष उपस्थित हो गया। सरकार ने वहाँ एक ख़ैरातखाना खोला उन्होंने जितनी मुस्तैदी से अकाल पीड़ितों की सहायता की, पर्दानशीन महिलाओं और भूखों मरते सफेदपोशों को जिस हमदर्दी के साथ मदद पहुँचाई, उसकी यथोचित प्रशंसा नहीं की जा सकती। चाहे जिस धर्म या संप्रदाय का आदमी हो, सबके साथ उनकी एक सी सहानुभूति थी।

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