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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


सन् १७५४ ई० में रेनाल्ड्स की डाक्टर जानसन से मित्रता हो गई। वह डेवनशायर गया हुआ था। वहाँ उसे एक मित्र के यहाँ डाक्टर महोदय का लिखा हुआ कवि वाल्टर सैवेज का जीवन चरित दिखाई दिया। उसमें ऐसा मन लगा कि उसने उसे खड़े-खड़े समाप्त करके दम लिया। उस समय से उसके मन में रोचक पुस्तक के रचयिता के दर्शन करने की आकांक्षा उत्पन्न हो गई। संयोगवश एक रईस की आकस्मिक मृत्यु के अवसर पर दोनों का मिलन हो गया। उस व्यक्ति से बहुतों का उपकार होता था। लोग उसके हृदय और मस्तिष्क के सुन्दर गुणों की बड़ाई कर रहे थे। रेनाल्ड्स के मुँह से निकला–निस्संदेह यह घटना बड़ी दुःखद है; पर अब बहुत से लोग उपकार के भार से छुटकारा पा गए। उपस्थित जनों को उसकी यह उक्ति बुरी लगी, पर डाक्टर जानसन बहुत प्रसन्न हुए और लोगों से कहा कि यह व्यक्ति विचारवान् जान पड़ता है। जब रेनाल्ड्स घर लौटा, तो डॉक्टर साहब उसके साथ-साथ आये। इस प्रकार उस मित्रता का आरम्भ हुआ, जो दोनों के जीते-जी बड़े प्रेम से निभ गई।

डाक्टर महोदय का स्वभाव रूखा, अभिमानी और कुछ-कुछ अक्खड़ था। उनके जीवन का बड़ा भाग अनादर, अर्थकष्ट और एकान्तवास में कटा था। ऊँची श्रेणीवालों के साथ न होने के कारण उठने बैठने और बातचीत का तौर-तरीका भी न जानते थे। इस कारण बड़े आदमियों की मंडली में उनका अधिक आदर मान न होता था। इसमें सन्देह नहीं कि उनके पांडित्य की धाक सब पर बैठी हुई थी। पर उसके साथ ही उनका भोंडा तौर-तरीका, कुरूप चेहरा, मुँह तोड़ उत्तर देने की आदत और बेलाग स्पष्टवादिता उन्हें धनी और प्रभावशाली पुरुषों के हृदयों में स्थान न पाने देती थी।

लक्ष्मी के कृपापात्र विद्या बुद्धि में छोटे ही क्यों न हों, यह नहीं भूलते कि हम रईस हैं। वह चाहते हैं कि विद्वान हो या गुणी, जब प्रार्थी बनकर आये, तो खुशामद और नाज़बदारी सामान साथ लेता आये। डाक्टर जानसन के स्वभाव में यह बात न थी। वह जब उनकी मण्डली में आते, तो मुस्कराकर और सिर झुकाकर आदर की प्रार्थना न करते थे; किन्तु सम्मान को अपनी योग्यता का पुरस्कार समझते थे। और ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए और उनकी विद्वत्ता और विचारशीलता का परिचय लोगों को मिलता गया। त्यों-त्यों उनमें झल्लापन और कटुभाषिता के दोष होते हुए भी छोटे-बड़े सभी उनके सामने श्रद्धा से सिर झुकाने को बाध्य हुए।

इसके विपरीत रेनाल्ड्स स्वभावतः हँसमुख और मिलनसार था और आवश्यकतावश ऊँची श्रेणी के रहन-सहन का अनुसरण करता था। चित्रकला के पुराने आचार्यों में उसे सच्ची श्रद्धा थी। राफाएल और माइकेल एंजेलो को वह किसी सिद्ध महात्मा या पैग़म्बर से कम न समझता था। कहता है– ‘‘चित्र में स्वाभाविकता का होना कला-निपुणता है और इसकी कमी, चाहे रंग भरने में हो या प्रकृत चित्र में, दोष है। रंग-विधान दो प्रकार का होता है। एक परिष्कृत, सुन्दर और सौम्य, दूसरा चटक, भड़कीला और आँखों में समा जानेवाला। कलाकार पहले प्रकार के रंग का व्यवहार करते हैं। व्यवसायी चित्रकार दूसरे प्रकार के रंग का। कुछ चित्रकारों का खयाल है कि ऐसी सादगी चित्र को उदास और अंधा दीपक बना देती है; पर यह कला का दोष है। इसमें चित्र की शान्तिदायिनी शक्ति घट जाती है।

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