|
उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया और मतई से बोली–‘तुम क्या कहते हो, क्या तुमने भी हिम्मत छोड़ दी?’
मतई ने छाती ठोंककर कहा–‘बात कहकर निकल जाना पाजियों का काम है, सरकार। आपका हुकुम होगा, उससे बाहर नहीं जा सकता। चाहे जान रहे या जाय। बिरादरी पर भगवान की दया से इतनी धाक है कि जो बात कहूँगा, उसे कोई ढुलक नहीं सकता।’
सुखदा ने निश्चय–भाव से कहा–‘अच्छी बात है, कल से तुम अपनी बिरादरी की हड़ताल करवा दो। और चौधरी लोग जायँ। मैं खुद घर-घर घूमूँगी, द्वार-द्वार जाऊँगी, एक-एक के पैर पड़ूँगी और हड़ताल कराके छोड़ूँगी; और हड़ताल न हुई तो मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँगी। मुझे तो तुम लोगों से बड़ी आशा थी, तुम्हारा बड़ा ज़ोर था, अभिमान था, तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया।’
यह कहती हूई वह ठाकुरद्वारे से निकलकर पानी में भीगती हुई चली गयी। मतई भी उसके पीछे-पीछे चला गया। और चौधरी लोग अपनी अपराधी सूरतें लिए बैठे रहे।
एक क्षण के बाद जगन्नाथ बोला–‘बहूजी ने शेर का कलेजा पाया है।’
सुमेर ने पोपला मुँह चुबलाकर कहा–‘लक्ष्मी की औतार है। लेकिन भाई, रोज़गार तो नहीं छोड़ा जाता। हाकिमों की कौन चलाये, दस दिन, पन्द्रह दिन न सुनें, तो यहाँ तो मर मिटेंगे।’
ईदू को दूर की सूझी–‘मर नहीं मिटेंगे पंचों, चौधरियों को जेहल में ठूँस दिया जायेगा। हो किस फेरे में? हाकिमों से लड़ना ठट्ठा नहीं।’
जंगली ने हामी भरी–‘हम क्या खाकर रईसों से लड़ेंगे? बहूजी के पास धन है, इलम है, वह अफसरों से दो-दो बातें कर सकती हैं। हर तरह का नुकसान सह सकती हैं। हमारी तो बधिया बैठ जायेगी।’
किन्तु सभी मन में लज्जित थे, जैसे मैदान से भागा सिपाही। उसे अपने प्राणों के बचाने का जितना आनन्द होना है, उससे कहीं ज़्यादा भागने की लज्जा होती है। वह अपनी नीति का समर्थन मुँह से चाहे कर ले, हृदय से नहीं कर सकता।
ज़रा देर में पानी रुक गया और यह लोग भी यहाँ से चले; लेकिन उनके उदास चेहरों में, उनकी मन्द चाल में, उसके झुके हुए सिरों में, उनकी चिन्तामय मौन में, उनके मन के भाव साफ़ झलक रहे थे।
१३
सुखदा घर पहुँची, तो बहुत उदास थी। सार्वजनिक जीवन में हार का उसे यह पहला ही अनुभव था और उसका मन किसी चाबुक खाये हुए अल्हड़ बछेड़े की तरह सारा साज़ और बम और बन्धन-तोड़-ताड़कर भाग ज़ाने के लिए व्यग्र हो रहा था। ऐसे कायरों से क्या आशा की जा सकती है! जो लोग स्थायी लाभ के लिए थोड़े कष्ट नहीं उठा सकते, उनके लिए संसार में अपमान और दुःख के सिवा और क्या है।
|
|||||

i 










