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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
आत्मानन्द ने सोचा था, उनकी पीठ ठोंकी जायगी, यहाँ उनके पौरुष पर आक्षेप हुआ। बोले–‘तुम मरना चाहते हो, मैं जीना चाहता हूँ।’
‘जीने का उद्देश्य तो कर्म है।’
‘हाँ, मेरे जीवन का उद्देश्य कर्म ही है। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तो अकाल-मृत्यु है।’
‘अच्छा शर्बत पिलवाता हूँ, उसमें दही भी डलवा दूँ?’
‘हाँ, दही की मात्रा अधिक हो और दो लोटे से कम न हो। इसके दो घण्टे बाद भोजन चाहिए।’
‘मार डाला! तब तक तो दिन ही गायब हो जायेगा।’
अमर ने मुन्नी को बुलाकर शर्बत बनाने को कहा और स्वामीजी के बराबर ही जमीन पर लेटकर पूछा–‘इलाक़े की क्या हालत है?’
‘मुझे तो भय हो रहा है, कि लोग धोखा देंगे। बेदख़ली शुरू हुई, तो बहुतों के आसन डोल जायेंगे!’
‘तुम तो दार्शनिक न थे, यह घी पत्ते पर या पत्ता घी पर की शंका कहाँ से लाये?’
‘ऐसा काम ही क्यों किया जाय, जिसका अन्त लज्जा और अपमान हो। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ मुझे बड़ी निराशा हुई।’
‘इसका अर्थ यह है कि आप इस आन्दोलन के नायक बनने के योग्य नहीं हैं। नेता में आत्मविश्वास, साहस और धैर्य, ये मुख्य लक्षण हैं।’
मुन्नी शर्बत बनाकर लायी। आत्मानन्द ने कमण्डलु भर लिया और एक साँस में चढ़ा गये। अमरकान्त एक कटोरे से ज़्यादा न पी सके।
आत्मानन्द ने मुँह चिढाकर कहा–‘बस! फिर भी आप अपने को मनुष्य कहते हैं?’
अमर ने जवाब दिया–‘बहुत खाना पशुओं का काम है।’
‘जो खा नहीं सकता वह काम क्या करेगा?’
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