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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सलीम ने काले खाँ की तरफ़ देखकर कहा– ‘यह तो आपने बुरी ख़बर सुनाई। उसके घर में आज ही लड़का भी होना था। बोलो काले खाँ, अब?’

काले खाँ ने अविचिलच भाव से कहा–‘तो कोई हरज नहीं भैया। तुम्हारा काम मैं कर दूँगा। रुपये मिल जायेंगे। अब जाता हूँ, दो-चार रुपये का सामान लेकर घर में रख दूँ। मैं उधर ही से कचहरी चला जाऊँगा! ज्योंही तुम इशारा करोगे, बस।’

वह चला गया, तो शान्तिकुमार ने सन्देहात्मक स्वर में पूछा–‘यह क्या कह रहा था, मैं न समझा?’

सलीम ने इस अन्दाज़ से कहा मानो यह विषय गंभीर विचार के योग्य नहीं है-कुछ नहीं, ज़रा काले खाँ की जवाँमर्दी का तमाशा देखना है। अमरकान्त की यह सलाह है कि जज साहब आज फै़सला सुना चुके, तो उन्हें थोड़ा-सा सबक़ दे दिया जाए।’

डॉक्टर साहब ने लम्बी साँस खींचकर कहा–‘तो कहो, तुम लोग बदमाशी पर उतर आये। अमरकान्त की यह सलाह है, यह और भी अफ़सोस की बात है। वह तो यहाँ है ही नहीं, मगर तुम्हारी सलाह से यह तजबीज हुई है, इसीलिए तुम्हारे ऊपर भी इसकी उतनी ही ज़िम्मेदारी है। मैं इसे कमीनापन कहता हूँ। तुम्हें यह समझने का कोई हक़ नहीं है कि जज साहब अपने अफसरों को खुश करने के लिए इन्साफ़ का ख़ून कर देंगे। जो आदमी इल्म में, अक्ल में, तजरबे में, इज़्ज़त में तुमसे कोसों आगे है, वह इन्साफ़ में तुमसे पीछे नहीं रह सकता। मुझे इसलिए और भी ज़्यादा रंज है कि मैं तुम दोनों को शरीफ़ और बेलोस समझता था।’

सलीम का मुँह ज़रा–सा निकल आया। ऐसी लताड़ उसने उम्र में कभी न पायी थी। उसके पास अपनी सफ़ाई देने के लिए एक भी तर्क एक भी शब्द न था। अमरकान्त के सिर इसका भार डालने की नीयत से बोला–‘मैंने तो अमरकान्त को मना किया था, पर जब वह न माने तो मैं क्या करता।’

डॉक्टर साहब ने डाँटकर कहा–‘तुम झूठ बोलते हो। मैं यह नहीं मान सकता। यह तुम्हारी शरारत है।’

‘आपको मेरा य़कीन ही न आये, तो क्या इलाज।’

‘अमरकान्त के दिल में ऐसी बात हरगिज़ नहीं पैदा हो सकती।’

सलीम चुप हो गया। डॉक्टर साहब कह सकते थे–मान लें, अमरकान्त ही ने यह प्रस्ताव पास किया तो तुमने इसे क्यों मान लिया? इसका उसके पास कोई जवाब न था।

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