उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
शंखधर– आपने पिताजी से भेंट की और मुझसे कुछ न कहा। इससे तो यह प्रकट होता है कि आपको मुझ पर दया नहीं आती।
चक्रधर ने कुछ जवाब न दिया। अत्यन्त कठिन परीक्षा में पड़े हुए थे। बहुत दिनों के बाद, अनायास ही उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। वे सारी भावनाएं, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठीं और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं । वह मोहबन्धन, उसे वे बड़ी मुश्किल से ढीला कर पाये थे, अब उन्हें सतगुण वेग से अपनी ओर खींच रहा था।
सहसा शंखधर ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा– तो मैं निराश हो जाऊं?
चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छवास को दबाते हुए कहा– नहीं बेटा, सम्भव है, कभी वह स्वयं पुत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़ जायं। अगर तुम अपने जीवन में ऊंचे आदर्श का पालन कर सके, तो तुम उन्हें अवश्य खींच लोगे।
शंखधर– आपके दर्शन मुझे फिर कब होंगे? आपका पता कैसे मिलेगा? मैंने आपको पिता-तुल्य ही समझा है और जीवन-पर्यन्त समझता रहूंगा। इन चरण-कमलों की भक्ति मेरे मन में सदैव बनी रहेगी। आपके दर्शनों के लिए मेरी आत्मा सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आ जाऊंगा।
चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा– नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूंगा। मैंने भी तुमको पुत्र-तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूंगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।
संध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था मानो उनका हृदय वक्षस्थल को तोड़कर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आंखों से ओझल हो गया, उन्होंने एक लम्बी सांस ली और बालकों की भांति बिलख-बिलख कर रोने लगे
उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा-सम्पन्न युवक के दर्शन न होंगे!
२३
अभागिन अहल्या के लिए संसार सूना हो गया। पति को पहले ही खो चुकी थी। जीवन का एक मात्र आधार पुत्र रह गया था। उसे भी खो बैठी। अब वह किसका मुंह देखकर जियेगी? वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया।
अहल्या को अब वह राज-भवन फाड़े खाता था। वह अब उसे छोड़कर कहीं चली जाना चाहती थी। कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छांह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था। वे दिन कितने अच्छे थे, जब वह अपने स्वामी के साथ पुत्र को हृदय से लगाये एक छोटे से मकान में रहती थी। रह-रहकर उसको अपनी भोग-लिप्सा पर क्रोध आता था, जिसने उसका सर्वनाश कर दिया था। क्या उस पाप का कोई प्रायश्चित नहीं है? क्या इस जीवन में स्वामी के दर्शन होंगे? अपने प्रिय पुत्र की मोहिनी मूर्ति फिर वह न देख सकेगी? कोई ऐसी युक्त नहीं है?
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