उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
आज २॰ साल के बाद अहल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था; पर आह! इस घर की दशा ही कुछ और थी, सारा घर गिर पड़ा था। न आंगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलबे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूर के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गयी थी। न मुंह में दांत, न आंखों में ज्योति; सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी। दोनों गले मिलकर खूब रोयीं। जब आंसुओं का वेग कुछ कम हुआ, तो वागीश्वरी ने कहा– बेटी, तुम अपने साथ कुछ सामान नहीं लायीं क्या? दूसरी ही गाड़ी से जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आयी भी, तो इस तरह! बुढ़िया को बिलकुल भूल ही गयीं। खंडहर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा?
अहल्या– अम्माँ, महल में रहते-रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खंडहर में ही रहूंगी और तुम्हारी सेवा करूंगी। जब से तुम्हारे घर से गयी, दुःख-ही-दुःख पाया, आनन्द के दिन तो इसी घर में बीते थे।
वागीश्वरी– लड़के का अभी कुछ पता न चला?
अहल्या– किसी का पता नहीं चला, अम्मां! मैं राज्य-सुख पर लट्टू हो गयी थी। उसी का दण्ड भोग रही हूं। राज्य-सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है वह देख चुकी; अब उसे छोड़ कर देखूंगी कि क्या जाता है; मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है अम्मां?
वागीश्वरी– कैसा कष्ट, बेटी! जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं हैं तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूं। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूं? तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुंह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊं?
यह कहते-कहते वृद्धा का मुखमण्डल गर्व से चमक उठा। उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगी! अहल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता तुझे धन्य है तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।
वागीश्वरी ने फिर कहा– ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूं। मेरे मैके वाले कई बार मुझे बुलाने आये। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुंह से न कहे, पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर अहसान कर रहा हूं। जब तक आंखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आंखें गयीं, दलाई करती हूं। कभी-कभी उन पर जी झुंझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थी। ऐसा कौन-सा दिन जाता कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों! लेकिन फिर दिल से समझती हूं कि उन्होंने किसी बुरे काम में धन नहीं उड़ाया! जो कुछ किया दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहां तक कि अपने प्राण भी दे दिये। फिर मैं क्यों पछताऊं और क्यों रोऊं! यश सेंत में थोड़े ही मिलती है; मगर मैं तो अपनी बातों में लग गयी। चलो, हाथ-मुंह धो डालो, कुछ खा पी लो, तो फिर बातें करूं।
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