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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
एकाएक उसे खयाल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसीलिए उन्हें बता देना चाहिए कि मैं और किस काम के लिए जा रहा हूं। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है; जब चाहेंगे आयेंगे; हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जाएगा। उसने एक कागज पर पत्र लिखा था और अपने बिस्तर पर रख दिया।
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरुद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला, कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहां लिए जाती है।
२२
पांच वर्ष व्यतीत हो गए। पर न शंखधर का पता चला न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह अनुभव करना चाहते हैं कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहां है, जिसके दर्शन-मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहां चला गया? कुछ पता नहीं। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा; लेकिन उसकी कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वह मनोरमा जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिन की भांति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता, वही इस भीषण अंधकार में अब भी दीपक की भांति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रहा जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता।
संध्या हो गयी है। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गये हैं। रमणियां जल भरने के लिए कुएं पर आ गयी हैं। इसी समय एक युवक हाथ में एक खंजरी लिए आकर कुएं की जगत पर बैठ गया। यही शंखधर है। उसका वर्ण, रूप और वेष में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छायामात्र है। उसका मांस गल गया है, केवल अस्थि-पंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो!
एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा-कहां से आते हो परदेशी, बीमार मालूम होते हो?
शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा– बीमार तो नहीं हूं माता, दूर से आते-आते थक गया हूं।
यह कहकर उसने अपनी खंजरी उठा ली और उसे बजाकर गाने लगा।
इस क्षीणकाय युवक के कंठ में इतना स्वर-लालित्य, इतना विकल अनुराग था कि रमणियां चित्रवत् खड़ी रही गयीं।
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