उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाये खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियां दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली! आखिर यही सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में यही बदा था, तो मैं करता क्या? मनोरमा भी तो खुश है।
ज्योंही ठाकुर साहब घर पहुंचे, लौंगी ने पूछा– वहां क्या बहातचीत हुई
दीवान– शादी ठीक हो गई और क्या?
सुनकर लौंगी ने अपना कपार पीट लिया। उसे दीवान साहब पर बड़ा क्रोध आया। उसने खूब खरी-खरी सुनाई। मुंशीजी की भी सात पुश्तों की खबर ले डाली। लेकिन शादी ठीक हो ही गई थी। अब बात फेरी नहीं जा सकती थी इसलिए लौंगी मन मारकर उसी दिन से विवाह की तैयारियां करने लगी।
यों तीन महीने तैयारियों में गुजर गए। विवाह का मुहूर्त निकल आ गया सहसा एक दिन शाम को खबर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कन्धे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।
मनोरमा के विवाह की तैयारियां तो हो ही रही थीं और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिन्ता, हृदय को मथा करती थी। अन्धों की भांति इधर-उधर टटोलती थी; पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में सन्तुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घण्टों यह मूर्छित-सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ नहीं है, अनन्त आकाश में केवल वही अकेली है।
यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी सो बोली– लौंगी अम्मा, मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा, घाव अच्छा हो जाएगा न?
लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा– अच्छा क्यों न होगा, बेटी! भगवान् चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जाएगा।
लौंगी मनोरमा के मनोभाव को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है। मन-ही-मन तिलमिला कर रह गयी। हाय! चारे पर गिरने वाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी! मोती में जो चमक है, वह अनमोल है; लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।
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