उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
इस भांति कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिनभर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले– आज इस दारोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो, गालियां दिया करता है। ऐसा मारो कि जन्म भर को दाग हो जाय! यही न होगा कि साल-दो साल की मीयाद और बढ़ जाएगी। बच्चा की आदत तो छूट जायगी। चक्रधर इस तरह की बातें अकसर सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया, मगर भोजन करने के समय ज्योंही दारोगा साहब आकर खड़े हुए और एक कैदी को देर में आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और ‘मारो-मारो का शोर मच गया। दारोगाजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गयी। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोगाजी की गरदन पकड़ी और इतनी जोर से दबायी कि उनकी आंखें निकल आयीं। चक्रधर ने देखा अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले क्या करते हो?
धन्नासिंह– हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियां न देगा, मारने तो न दौड़ेगा?
दारोगा– कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुंह से गाली का एक हरफ भी निकले।
धन्नासिंह– कान पकड़ो।
दारोगा– कान पकड़ता हूं।
धन्नासिंह– जाओ बच्चा, भले का मुंह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहां कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है।
चक्रधर– दारोगाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहां से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन गरीबों को भुनवा डालिए।
दारोगा– लाहौल बिलाकूवत! इतना कमीना नहीं हूं।
दारोगाजी तो यहां से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बन्दूक लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम-के-दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुंचा और लपककर भीतर घुस पड़ा।
चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। उन्होंने आगे बढ़कर कहा– दारोगाजी, आखिर आप क्या चाहते हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है।
दारोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा– यही उन सब बदमाशों का सरगना है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं उन्हें खूब मारो, मारते-मारते हलवा निकाल लो सुअर के बच्चों का।
चक्रधर– आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है…
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