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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


लौंगी– इनके रूपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं, संकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ़ गये।

यह कहकर लौंगी गयी और रुपये लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपये उठा लिए और बाहर चले। लेकिन रास्ते में क्रोध शान्त हो गया। चक्रधर के पास पहुँचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर– आप को कष्ट देने आया हूँ।

ठाकुर– नहीं-नहीं मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। यह लीजिए आपके रुपये।

चक्रधर– मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आय़ा हूँ। मुझे एक काम से आगरा जाना है। शायद दो-तीन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूं।

ठाकुर– हां, हां, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अन्दर चले गए, तो मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं।

चक्रधर– एक जरूरत से जाता हूं।

मनोरमा– कोई बीमार है क्या?

चक्रधर– नहीं, बीमार कोई नहीं है।

मनोरमा– फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइयेगा मैं जाने न दूंगी।

चक्रधर– लौटकर बता दूंगा। तुम किताब देखती रहना।

मनोरमा– जी नहीं, मैं यह नहीं मानती, अभी बतलाइए। आप अगर मुझसे बिना बताये चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढूंगी।

चक्रधर– यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कुराई और मैं चला।

मनोरमा– मैं दोनों हाथों से मुंह बन्द किये लेती हूं।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा– मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए जाते हैं।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आयी। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरन्त अपने कमरे में लौट आयी। उसकी आंखें डबडबायी हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी, मानों चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों!

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