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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


जियाराम बैठा रोता रहा। अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णत: लोप न हुआ था, अपनी दुर्जनता उसे साफ नजर आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आयी थी। रोकर डॉक्टर साहब से कहा–मैं बहुत लज्जित हूं। दूसरों के बहकाने में आ गया। अब आप मेरी जरा भी शिकयत न सुनेंगे। आप पिताजी से मेरे अपराध क्षमा कर दीजिए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हूं। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे कहिए- मेरे अपराध क्षमा कर दें, नहीं मैं मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊंगा, डूब मरुंगा।

डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाये। जियाराम को गले लगाकर विदा किया।

जियाराम घर पहुंचा, तो ग्यारह बज गये थे। मुंशीजी भोजन करे अभी बाहर आये थे। उसे देखते ही बोले- जानते हो कै बजे है? बारह का वक्त है।

जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा–डॉक्टर सिन्हा मिल गये। उनके साथ उनके घर तक चला गया। उन्होंने खाने के लिए जिद कि, मजबूरन खाना पड़ा। इसी से देर हो गयी।

मुंशीजी–डॉक्टर सिन्हा से दुखड़े रोने गये होंगे या और कोई काम था।

जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गया, बोला–दुखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है।

मुंशीजी–जरा भी नहीं, तुम्हारे मुंह मे तो जबान ही नहीं। मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे?

जियाराम–और दिनों की मैं नहीं कहता, लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहां मैंने कोई बात ऐसी नहीं की, जो इस वक्त आपके सामने न कर सकूं।

मुंशीजी–बड़ी खुशी की बात है। बेहद खुशी हुई। आज से गुरुदीक्षा ले ली है क्या?

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। सिर उठाकर बोला–आदमी बिना गुरुदीक्षा लिए हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है। अपाना सुधार करने के लिए गुरुमन्त्र कोई जरुरी चीज नहीं।

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