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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मोटेरामजी मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बन्धन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धान्त था कि घृत से सभी वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे, पर शर्बत से उन्हें रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरुद्ध था, सकुचाते हुए बोले-शर्बत पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूँगा।

भाल–फलाहारी न?

मोटे–इसका मुझे कोई विचार नहीं।

भाल–है तो यही बात। छूत-छात सब ठकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम, कोई तो बोलो!

अबकी भी वही बूढ़ा कहार खाँसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला-सरकार, मोर तलब दै दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहाँ लौ दौरी। दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत हैं।

भाल–काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहिले चाहिए। दिन भर पड़े-पड़े खाँसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा।

कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोले-वहाँ से एक पंडितजी आये हैं। यह खत लाये हैं, जरा पढ़ो तो।

पत्नीजी का नाम रँगीलीबाई थी। गोरे रंग की प्रसन्न- मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेमी मित्र की भाँति मचल-मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था।

रँगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोलीं-कह दिया न किस हमें वहाँ ब्याह करना मंजूर नहीं।

भाल–हाँ, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुँह से शब्द न निकलता था। झूठ-मूठ का होला करना पड़ा।

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