उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
वह चला गया, तो निर्मला बोली-पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शर्माते थे। किसी चीज की जरूरत होती, तो बाहर से मँगवा भेजते। जब से मैंने बुलाकर कहाँ तब से आने लगे हैं।
तोताराम ने कुछ चिढ़कर कहा–तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें माँगने क्यों आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता?
निर्मला ने यह बात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। यह कोई बनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था, उसमें वही उत्सुकता,वही चंचलता, वही विनोद-प्रियता विद्यमान थी और बालकों के साथ उसकी ये बालवृत्तियाँ प्रस्फुटित होती थीं। पत्नी-सुलभ ईर्ष्या अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई थी; लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक- भौं सिकोड़ने का आशय न समझकर बोली-मैं क्या जानू, उनसे क्यों नहीं माँगते, मेरे पास आते हैं तो दुत्कार नहीं देती। अगर ऐसा करूँ तो यही होगा कि यह तो लड़कों को देखकर जलती है!
मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न दिया; लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं की सीधे मंसाराम के पास गये और उसका इम्तहान लेने लगे। यह जीवन में पहला ही अवसर था कि इन्होंने मंसाराम या किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो। उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न मिलती थी। उन्हें उन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गये थे। तब से उनकी ओर आँख तक न उठायी थी। वह कानूनी पुस्तकों और पत्रों के सिवा और कुछ भी पढ़ते ही न थे। इसका समय ही न मिलता। पर आज उन्हीं विषयों में मंसाराम की परीक्षा लेने लगे। मंसाराम जहीन था और इसके साथ मेहनती भी था।
खेल में भी टीम का कैप्टन होने पर भी वह क्लास में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता पत्थर की लकीर हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो सूझे नहीं, जिनके उत्तर देने में चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता और ऊपरी प्रश्नों को मंसाराम ने चुटकियां में उड़ा दिया। कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली जाते देखकर जैसे झल्ला-झल्लाकर और भी तेजी से वार करता है, उसी भाँति मंसाराम के जवाबों को सुन-सुनकर वकील साहब भी झल्लाते थे। वह कोई ऐसा प्रश्न करना चाहते थे; जिसका जवाब मंसाराम से न बन पड़े। देखना चाहते थे कि इसका कमजोर पहलू कहाँ है। यह देखकर अब उन्हें संतोष न हो सकता था कि वह क्या करता है।
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