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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मंसाराम छात्रालय में रहने के लिए उत्सुक नहीं था; लेकिन जब मुंशीजी ने यही बात कह दी और इसका कारण पूछा, सो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए प्रसन्नचित होकर बोला मुँह क्यों लटकाऊँ? मेरे लिए जैसे घर वैसे बोर्डिंग हाउस। तकलीफ भी कोई नहीं, और हो भी तो उसे सह सकता हूँ। मैं कल से चला जाऊँगा। हाँ अगर जगह न खाली हुई, तो मजबूरी है। मुंशीजी वकील थे। समझ गये कि यह लौंडा कोई ऐसा बहाना ढूँढ रहा है, जिसमें मुझे वहाँ जाना भी न पड़े और कोई इल्जाम भी सिर पर न आये। बोले-सब लड़कों के लिए जगह है तुम्हारे लिये ही जगह न होगी?

मंसाराम–कितने ही लड़कों को जगह नहीं मिली और किराये के मकानों में पड़े हुए हैं। अभी बोर्डिंग हाउस से एक लड़के का नाम कट गया था। तो पचास अर्जियाँ उस जगह के लिए आयी थीं।

वकील साहब का ज्यादा तर्क-वितर्क करना उचित नहीं समझा। मंसाराम को कल तैयार रहने की आज्ञा देकर अपनी बग्घी तैयार करायी और सैर करने चले गये। इधर कुछ दिनों से शाम को वह प्रायः सैर करने के लिए चले जाया करते थे। किसी अनुभवी प्राणी ने बतलाया था कि दीर्घ जीवन के लिए इससे बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है। उसके जाने के बाद मंसाराम आकर रुक्मिणी से बोला-बुआजी बाबूजी ने मुझे कल से स्कूल में रहने को कहा है।

रुक्मिणी ने विस्मत होकर पूछा–क्यों?

मंसा–मैं क्या जानूँ? कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।

रुक्मिणी–तूने कहा नहीं कि मैं कहीं नहीं जाता।

मंसा–कहा क्यों नहीं, मगर वह जब मानें भी।

रुक्मिणी–तुम्हारी नयी अम्माँजी की कृपा होगी और क्या?

मंसाराम–नहीं बुआजी, मुझे उन पर संदेह नहीं है, वह बेचारी भूल से कभी कुछ नहीं कहतीं। कोई चीज माँगने जाता हूँ, तो तुरन्त दे देती हैं।

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