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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘मैंने उसके शरीर में हाथ-पाँव के अतिरिक्त कुछ नहीं देखा।’’

‘‘सच ही तुम देहाती गंवार हो। अब तुम्हारा गौना कब होगा?’’

‘‘मुझको पता नहीं!’’

‘‘तो विवाह किसलिये कराया है?’’

‘‘बुद्धिमान मामा विष्णुजी को मिठाई खिलाने के लिए।’’

‘‘हत्तेरे की! मुझको मामा मत कहा कर। मैंने कई बार कहा है कि मुझको मामा कहकर सम्बोधित किया तो लड़ाई हो जायेगी।’’

‘‘तो तुम मामा बने क्यों हो?’’

‘‘मैं नहीं बना। यह तो पिता जी ने तुम जैसे मूर्ख को भानजा बना दिया है।’’

‘‘तो बहन को घर पर रख छोड़ते।’’

मैं पिताजी के स्थान पर होता तो बहन का विवाह तुम्हारे पिताजी से कभी न करता। लखनऊ में बहुत लड़के थे।’’

इन्द्रनारायण अभी भी मुस्करा रहा था और उसके मुस्कराने से विष्णु का क्रोध और भी बढ़ रहा था। इससे उसने क्रोध में पूछ लिया, ‘‘किस बात पर हँस रहे हो?’’

‘‘अपने मामा की बुद्धिमत्ता पर। तुम अपने पिता के स्थान पर नहीं थे, तुम बाबा के घर पैदा नहीं हुए, यह तुम्हारे बाबा का दोष है और यदि तुम्हारी बहनजी का विवाह ‘दुरैया’ में हो गया तो तुम्हारे पिता का दोष है कि उन्होंने तुमसे राय किये बिना ऐसा क्यों कर दिया। कदाचित् तुम उस समय पैदा ही नहीं हुए थे। इसमें मेरा क्या दोष? मैं तो अब विष्णु का भानजा हो गया। अब क्या किया जाय?’’

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