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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘नहीं; आपकी कोठी से यहाँ अधिक आराम है। वहाँ आपकी बीवियाँ मुझको देख-देखकर जलती हैं। यहाँ की बेगमें बेचारी तो बकरी की मानिन्द हैं। वे हालात को वैसे ही लेती हैं, जैसे वे नवाब साहब की दूसरी रखैलों की वजह से लेती थीं।’’
‘‘तो तुम अपने श्वशुर की रखैल बन गयी हो?’’
‘‘जी नही; वे बेचारी ऐसा समझती हैं, मगर मैं न तो आपकी कानून से बीवी हूँ, न ही आपकी वालिद ही कानून से मेरे श्वशुर हैं। मैं यहाँ रहती हूँ, इसलिये कि यहाँ पर आराम ज्यादा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहाँ मेरा बच्चा है और वह अपनी माँ को पहचानने लगा है। अभी नाश्ता खत्म करने पर हम उससे मिलने चलेंगे।’’
अनवर अपने पिता और ऐना के जवाबों से अपने को निरुत्तर हो गया अनुभव करने लगा था। उसके क्रोध की मात्रा बढ़ रही थी। एक बार तो उसका हाथ अपनी अचकन की जेब में रखे पिस्तौल तक भी चला गया था, मगर फिर वह अपना भविष्य विचार कर चुपचाप नाश्ता लेता रहा।
ऐना को बाराबंकी में रहते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया। इन काल में न तो अनवर ही बाराबंकी आया और न ऐना ने लखनऊ जाने की इच्छा प्रकट की।
ऐना को पुनः गर्भ ठहरा तो इस बार प्रसव के लिये नवाब साहब उसको लखनऊ हस्पताल में दाखिल करवाने ले आये। ऐना की इच्छा थी कि लखनऊ के हस्पताल में ही उसको ले जाया जाये और नवाब साहब ने कोई एतराज नहीं किया। वहाँ उसके लिये एक स्पेशल कमरा रिजर्व कराया गया और प्रसव के सम्भावित दिन से कई दिन पूर्व ही ऐना को लेकर नवाब साहब वहाँ चले आये।
रजनी मैटर्निटी वार्ड में ही ड्यूटी पर थी। उसको पता चला था कि ऐना आई है तो उसने इन्द्रनारायण को इसकी सूचना दे दी।
अगले दिन इन्द्र रजनी के साथ ऐना इरीन के कमरे में गया। वह एक आरामकुर्सी पर बैठी कुछ ऊनी वस्तु बुन रही थी। डॉक्टर सैन्डरसन उसके समीप ही बैठी उसका हिस्ट्री चार्ट भर रही थी। डॉक्टर सैन्डरसन ने रजनी की ओर देखा तो रजनी ने इन्द्रनारायण का परिचय दे दिया–‘‘डॉक्टर! यह मेरे भाई हैं, इन्द्रनारायण। हमारे कॉलेज में मेरे ‘क्लासफैलो’ (सहपाठी) हैं। ऐना हम दोनों की मित्र हैं।’’
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