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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव

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रामाधार यह समझ गया था कि नगर के अनेक युवकों की भाँति उसका लड़का भी पथच्युत हो गया है। उसके मस्तिष्क में तो एक ही पथ था, जो अनुकरणीय था और वह पथ था वेद-शास्त्रों का। उसको समझ आया कि इन्द्र ने शास्त्र नहीं पढ़ा, इससे वह विपरीत पथ पर चल पड़ा है। उक्त वार्तालाप के समय तो उसने मन में समझ लिया कि उसके नास्तिक हो रहे लड़के का भगवान् ही रक्षक है। इस पर भी वह रात को अपनी पत्नी सौभाग्यवती को अपने मन की बात बताये बिना नहीं रह सका।

इन्द्रनारायण लेटा हुआ लखनऊ की बातों को स्मरण कर उनका अर्थ समझने का यत्न कर रहा था। गर्मी का मौसम था। मकान की छत पर खाट बिछी थी। इन्द्र की खाट उसकी माँ की खाट की दूसरी ओर थी। एक ओर उसके पिता की खाट थी।

लेटे-लेटे इन्द्रनारायण के पिता ने उसकी माँ से कह दिया, ‘‘मैं समझता हूँ कि रमा को कॉलेज में भरती न कराकर मैंने ठीक ही किया है।’’

‘‘क्यों, क्या हुआ है?’’ दोनों का विचार था कि इन्द्र सो रहा है। इन्द्र रजनी की बातों की उलझन में फँसा हुआ था। उसने उससे कहा था, ‘‘पूर्ण श्रेणी में एक आप ही हैं, जिनके विषय में मेरे मन में कुछ अच्छे विचार हैं।’’

इन्द्र विचार कर रहा था कि रजनी ने क्या अच्छी बात देखी है उसमें? एक लड़की का किसी लड़के से यह कहना कि वह उसको दूसरों से अच्छा समझती है, लड़के के मन में गुदगुदी उत्पन्न करने वाली बात है। इस पर भी वह इस कथन का प्रयोजन समझने में लीन था। एकाएक उसने कान में अपना नाम पड़ा। वह सतर्क हो सुनने लगा। उसका पिता कह रहा था, ‘‘इन्द्र को कॉलेज से भेजा है और वह वेद-शास्त्र में श्रद्धा खो चुका है। मैं समझता हूँ कि ब्राह्मण के घर पैदा हुआ हूँ, इससे एक सन्तान को तो वेद शास्त्र पढ़ाकर ब्राह्मणत्व प्रदान कर ऋषि-ऋण से उऋण हो सकूँ।’’

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