उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
चाय पीने से मदन का स्नायु-मण्डल जो पहले उद्विग्न हो गया था, अब शान्त होने लगा था। साथ ही वह अब भी अनुभव करने लगा था कि महेश्वरी और उसकी सहेली के सम्मुख उसने स्वयं को छोटा बना लिया है। बात मानने के लिए उसने कह दिया, ‘‘इस पर भी मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि मैं आत्मा-पारमात्मा को नहीं मानता। इलेक्टौनिक्स का आविष्कार हो जाने के अनन्तर तो हम जीवन के रहस्य को जानने की ड्यौढ़ी पर पहुंच गये हैं। इस अवसर पर ऐसी बातें कहना तो मानव को, उसकी टांग घसीट कर, पुनः भूतकाल के अन्धकारमय युग में ले जाने के तुल्य है।’’
इसके उत्तर में गुरनाम कौर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘यह चाय किसने बनाई है?’’
‘‘दादी ने।’’
‘‘चाय तो बहुत स्वादिष्ट है। उनको भी यहां बुला लीजिये न? वे अपनी बनाई हुई चाय का स्वाद ले लेतीं और हम उनका दर्शन लाभ कर लेतीं।’’
मदन उठा और दादी को बुला लाया। दादी बैठते हुए क्षमा मांगती हुई बोली, ‘‘मैंने तो स्वयं ही इनकी बातों से पृथक् रहने का निश्चय किया था। आजकल के युवक हैं, भगवान् जाने क्या-क्या बातें करते रहते हैं!
‘‘जब मेरा विवाह हुआ था तो मैं ग्यारह वर्ष की थी। विवाह के अनन्तर पांच वर्ष तक तो हमने कभी परस्पर बात भी नहीं की। मेरे बच्चा हुआ तो फिर बात करने का एक विषय हो गया। मदन के बाबा आते थे तो पूछ लेते, लल्ला कैसा है? और मैं बच्चे कीछोटी-से-छोटी चेष्टा के विषय में उनको बता दिया करती थी। वे बहुत ध्यान से सुना करते थे। बच्चा होने से पूर्व जब वे बाहर से आते तो चुपचाप मेरे मुख को देखते रहते थे। वे यह नहीं जानते थे कि क्या कहें और मैं भी नहीं जानती थी कि उनसे क्या पूछूं।’’
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