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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


सुमित्रा ने कहा–अकेली पड़ी-पड़ी क्या करूं? फिर यह भी तो अच्छा नहीं लगता कि मैं आराम से सोऊं और वह अकेली रोया करे। उठना भी चाहती हूं, तो चिमट जाती है, छोड़ती ही नहीं। मन में मेरी बेवकूफी पर हंसती है या नहीं यह कौन जाने; पर मेरा साथ उसे अच्छा न लगता हो, यह बात नहीं।

‘तुम्हें यह ख्याल भी नहीं होता कि उसकी और तुम्हारी कोई बराबरी नहीं? वह तुम्हारी सहेली बनने योग्य नहीं है।’

‘मैं ऐसा नहीं समझती।’

‘तुम्हें उतनी समझ ही नहीं, समझोगी क्या?’

‘ऐसी समझ का न होना ही अच्छा है।’

उस दिन से सुमित्रा परछाई की भांति पूर्णा के साथ रहने लगी।

कमलाप्रसाद के चरित्र में अब एक विचित्र परिवर्तन होता जाता था। सिनेमा देखने का अब उसे शौक न था। नौकरों पर डांट-फटकार भी कम हो गई। कुछ उदार भी हो गया। एक दिन बाजार से बंगाली मिठाई लाया और सुमित्रा को देते हुए कहा–जरा अपनी सखी को चखाना। सुमित्रा ने मिठाई ले ली; पर पूर्णा से उसकी चर्चा तक न की। दूसरे दिन कमला ने पूछा–पूर्णा ने मिठाई पसन्द की होगी? सुमित्रा ने कहा–बिल्कुल नहीं, वह तो कहती थी, मुझे मिठाई से कभी प्रेम न रहा।

कई दिनों के बाद कमलाप्रसाद एक दिन दो रेशमी साड़ियां लाए और बेधड़क अपने कमरे में घुस गए। दोनों सहेलियां खाट पर लेटी बातें कर रही थीं, हकबकाकर उठ खड़ी हुईं। पूर्णा का सिर खुला हुआ था, मारे लज्जा के उसकी देह में पसीना आ गया। सुमित्रा ने पति की ओर कुपित नेत्रों से देखा।

कमला ने कहा–अरे! पूर्णा भी यहीं है। क्षमा करना पूर्णा, मुझे मालूम न था। यह देखो सुमित्रा, दो साड़ियां लाया हूं। सस्ते दामों में मिल गईं। एक तुम ले लो, एक पूर्णा को दे दो।

सुमित्रा ने साड़ियों को बिना छुए हुए कहा–इनकी तो आज तक कोई जरूरत नहीं। मेरे पास साड़ियों की कमी नहीं है और पूर्णा रेशमी साड़ियां पहनना चाहेगी, तो मैं अपनी नयी साड़ियों में से एक दे दूंगी। क्यों बहन, इसमें से लोगी कोई साड़ी?

पूर्णा ने सिर हिलाकर कहा–नहीं, मैं रेशमी साड़ी लेकर क्या करूंगी।

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