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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ


बरहल उत्तर दिशा में नैपाल के समीप, अँगरेजी राज्य में एक रियासत थी। यद्यपि जनता उसे बहुत मालदार समझती थी, पर वास्तव में उस रियासत की आमदनी दो लाख से अधिक न थी। हाँ, क्षेत्रफल बहुत विस्तृत था। बहुत भूमि ऊसर और उजाड़ थी। बसा हुआ भाग भी पहाड़ी और अनुर्वर था और जमीन बहुत सस्ती उठती थी।

लाला साईंदास ने तुरन्त अलगनी से उतारकर रेशमी सूट पहन लिया और मेज पर आकर शान से बैठ गए मानो राजा-रानियों का यहाँ आना कोई असाधारण बात नहीं है। दफ्तर के क्लर्क भी सँभल गये। बैंक में सन्नाटे की हलचल पैदा हो गई। दरबान ने पगड़ी सँभाली। चौकीदार ने तलवार निकाली और अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पंखाकुली की मीठी नींद भी टूटी और बंगाली बाबू महारानी के स्वागत के लिए दफ्तर से बाहर निकले।

साईंदास ने बाहरी ठाट तो बना लिया, किन्तु चित्त आशा और भय से चंचल हो रहा था। एक रानी से व्यवहार करने का यह पहला ही अवसर था। घबराते थे कि बात करते बने या न बने, रईसों का मिजाज आसमान पर होता है। मालूम नहीं, मैं बात करने में कहाँ चूक जाऊँ। उन्हें इस समय अपने में एक कमी मालूम हो रही थी। वह राजसी नियमों से अनभिज्ञ थे। उनका सम्मान किस प्रकार करना चाहिए, उनसे बातें करने में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, उनकी मर्यादा-रक्षा के लिए कितनी नम्रता उचित है, इस प्रकार के प्रश्नों से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे, और जी चाहता था किसी तरह इस परीक्षा से शीघ्र मुक्ति हो जाय। व्यापारियों और मामूली जमींदारों या रईसों से वह रुखाई और सफाई का बर्ताब किया करते थे और पढ़े-लिखे सज्जनों से शील और शिष्टता का। उन अवसरों पर उन्हें किसी विशेष विचार की आवश्यकता न होती थी; पर उन्हें इस समय ऐसी परेशानी हो रही थी, जैसी लंकावासी को तिब्बत में हो, जहाँ के रस्म-रिवाज और बात-चीत का उसे ज्ञान न हो।

यकायक उनकी दृष्टी घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके थे; परन्तु घड़ी अभी दो पहर की नींद में मग्न थी। तारीख की सुई ने दौड़ में समय को भी मात कर दिया था। वह जल्दी से उठे कि घड़ी को ठीक कर दें कि इतने में महारानी के कमरे में पदार्पण हुआ। साईंदास ने घड़ी को छोड़ा और महारानी के निकट जा, बगल में खड़े हो गये। निश्चय न कर सके कि हाथ मिलाऊँ या झुककर सलाम करूँ। रानी जी ने स्वयं हाथ बढ़ाकर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया।

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