कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
भुनगी–टहल तो तभी करूँगी जब भाड़ बनाऊँगी। गाँव में रहने के नाते टहल नहीं कर सकती।
उदयभान–तो छोड़ कर निकल जा।
भुनगी–क्यों छोड़कर निकल जाऊँ। बारह साल खेत जोतने से असामी काश्तकार हो जाता है। मैं तो इस झोपड़े में बूढ़ी हो गयी। मेरे सास-सुसर और उनके बाप-दादे इसी झोपड़े में रहे। अब इसे यमराज को छोड़ कर और कोई मुझसे नहीं ले सकता।
उदयभान–अच्छा तो अब कानून भी बघारने लगी। हाथ-पैर पड़ती तो चाहे मैं रहने भी देता, लेकिन अब तुझे निकाल कर तभी दम लूँगा। (चपरासियों से) अभी जा कर इसके पत्तियों के ढेर में आग लगा दो, देखे कैसे भाड़ बनता है।
एक क्षण में हाहाकार मच गया। ज्वाला-शिखर आकाश से बातें करने लगा। उसकी लपटें किसी उन्मत्त की भाँति इधर-उधर दौड़ने लगीं। सारे गाँव के लोग उस अग्नि-पर्वत के चारों ओर जमा हो गये। भुनगी अपने भाड़ के पास उदासीन भाव से खड़ी यह लंकादहन देखती रही। अकस्मात् वह वेग से आ कर उसी अग्नि-कुंड में कूद पड़ी। लोग चारों तरफ से दौड़े, लेकिन किसी की हिम्मत न पड़ी की आग के मुँह में जाय। क्षणमात्र में उसका सूखा हुआ शरीर अग्नि में समाविष्ट हो गया।
उसी दम पवन भी वेग से चलने लगा। ऊर्ध्वगामी लपटें पूर्व दिशा की ओर दौड़ने लगीं। भाड़ के समीप ही किसानों की कई झोपड़ियाँ थीं, वह सब उन्मत्त ज्वालाओं का ग्रास बन गयीं। इस भाँति प्रोत्साहित होकर लपटें और आगे बढ़ीं। सामने पंडित उदयभान की बखार थी, उस पर झपटीं। अब गाँव में हलचल पड़ी। आग बुझाने की तैयारियाँ होने लगीं। लेकिन पानी के छीटों ने आग पर तेल का काम किया। ज्वालाएँ और भड़कीं और पंडितजी के विशाल भवन को दबोच बैठीं। देखते ही देखते वह भवन उस नौका की भाँति जो उन्मत्त तरंगों के बीच में झकोरे खा रही हो, अग्नि-सागर में विलीन हो गया और वह क्रंदन-ध्वनि जो उसके भस्मावशेष में प्रस्फुटित होने लगी, भुनगी के शोकमय विलाप से भी अधिक करुणाकारी थी।
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