कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
260 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
हाँ, तिलोत्तमा के सिर पर भूत सवार हो गया था। वह बैठी हुई आग्नेय नेत्रों से द्वारा की ओर ताक रही थी। उसके नयनों से ज्वाला निकल रही थी, जिसकी आँच दो गज तक लगती। इस समय उन्माद अतिशय प्रचंड था। दयाराम को देखते ही बिजली की तरह उन पर टूट पड़ी और हाथों से आघात करने के बदले उन्हें दाँतों से काटने की चेष्टा करने लगी। इसके साथ ही अपने दोनों हाथ उनकी गरदन में डाल दिये। दयाराम ने बहुतेरा चाहा, ऐड़ी-चोटी तक का जोर लगाया कि अपना गला छुड़ा लें, लेकिन तिलोत्तमा का बाहुपाश प्रतिक्षण साँप की केड़ली की भाँति कठोर एवं संकुचित होता जाता था। उधर यह संदेह था कि इसने मुझे काटा तो कदाचित् इसे जान से हाथ धोना पड़े। उन्होंने अभी जो औषधि पी थी, वह सर्प विष से अधिक घातक थी। इस दशा में उन्हें यह शोकमय विचार उत्पन्न हुआ। यह भी कोई चीज है कि दम्पति का उत्तरदायित्व तो सब सिर पर सवार, उसका सुख नाम का नहीं, उलटे रात-दिन जान का खटका। यह क्या माया है। वह साँप कोई प्रेत तो नहीं है जो इसके सिर आकर यह दशा कर दिया करता है। कहते हैं कि ऐसी अवस्था में रोगी पर चोट की जाती है, वह प्रेत पर ही पड़ती है नीची जातियों में इसके उदाहरण भी देखे हैं। वे इसी हैस-बैस में पड़े थे कि उनका दम घुटने लगा। तिलोत्तमा के हाथ रस्सी के फंदे की भाँति उनकी गरदन को कस रहे थे वे दीन असहाय भाव से इधर-उधर ताकने लगे। क्योंकर जान बचे, कोई उपाय न सूझ पड़ता था। साँस लेना दुस्तर हो गया, देह शिथिल पड़ गयी, पैर थरथराने लगे। सहसा तिलोत्तमा ने उनके बाँहों की ओर मुँह बढ़ाया। दयाराम काँप उठे। मृत्यु आँखों के सामने नाचने लगी। मन में कहा–यह इस समय मेरी स्त्री नहीं विषैली भयंकर नागिन है। इसके विष से जान बचानी मुश्किल है। अपनी औषधि पर जो भरोसा था, वह जाता रहा। चूहा उन्मत्त दशा में काट लेता है तो जान के लाले पड़ जाते हैं। भगवान्? कितन विकराल स्वरूप है? प्रत्यक्ष नागिन मालूम हो रही है। अब उलटी पड़े या सीधी इस दशा का अंत करना ही पड़ेगा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अब गिरा ही चाहता हूँ। तिलोत्तमा बार-बार साँप की भाँति फुँकार मार कर जीभ निकाले हुए उनकी ओर झपटती थी। एकाएक वह बड़े कर्कश स्वर से बोली–‘मूर्ख? तेरा इतना साहस कि तू इस सुंदरी से प्रेमालिंगन करे।’ यह कह कर वह बड़े वेग से काटने को दौड़ी। दयाराम का धैर्य जाता रहा। उन्होंने दहिना हाथ सीधा किया और तिलोत्तमा की छाती पर पिस्तौल चला दिया। तिलोत्तमा पर कुछ असर न हुआ। बाहें और भी कड़ी हो गयीं ; आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। दयाराम ने दूसरी गोली दाग दी। यह चोट पूरी पड़ी। तिलोत्तमा का बाहु-बंधन ढीला पड़ गया। एक क्षण में उसके हाथ नीचे को लटक गये, सिर झुक गया और वह भूमि पर गिर पड़ी।
|