कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
मेहता महोदय ने बजट पर जो विचार प्रकट किये, उनसे समस्त देश में हलचल मच गयी। एक दल उन विचारों को देववाणी समझता था, दूसरा दल भी कुछ अंशों को छोड़ कर शेष विचारों से सहमत था, किंतु तीसरा दल वक्तृता के एक-एक शब्द पर निराशा से सिर धुनता और भारत की अधोगति पर रोता था। उसे विश्वास ही न आता था कि ये शब्द मेहता की जबान से निकले होंगे।
मुझे आश्चर्य है कि गैर सरकारी सदस्यों ने एक स्वर से प्रस्तावित व्यय के उस भाग का विरोध किया है, जिस पर देश की रक्षा, शान्ति, सुदशा और उन्नति अवलम्बित है। आप शिक्षा-सम्बन्धी सुधारों को, आरोग्य विधान को, नहरों की वृद्धि को अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं। आपको अल्प वेतन वाले कर्मचारियों का अधिक ध्यान है। मुझे आप लोगों के राजनैतिक ज्ञान पर इससे अधिक विश्वास था। शासन का प्रधान कर्त्तव्य भीतर और बाहर की आशांतिकारी शक्तियों से देश को बचाना है। शिक्षा और चिकित्सा, उद्योग और व्यवसाय गौण कर्तव्य हैं। हम अपनी समस्त प्रजा को अज्ञान-सागर में निमग्न देख सकते हैं, समस्त देश को प्लेग और मलेरिया में ग्रस्त रख सकते हैं, अल्प वेतन वाले कर्मचारियों को दारुण चिंता का आहार बना सकते हैं, कृषकों को प्रकृति की अनिश्चित दशा पर छोड़ सकते हैं, किन्तु अपनी सीमा पर किसी शत्रु को खड़े नहीं देख सकते। अगर हमारी आय सम्पूर्णतः देश-रक्षा पर समर्पित हो जाय, तो भी हमको आपत्ति न होनी चाहिए। आप कहेंगे इस समय किसी आक्रमण की सम्भावना नहीं है। मैं कहता हूँ संसार में असम्भव का राज्य है। हवा में रेल चल सकती है, पानी में आग लग सकती है, वृक्षों में वार्तालाप हो सकता है। जड़ चैतन्य हो सकता है। क्या ये रहस्य नित्य प्रति हमारी नजरों से नहीं गुजरते? आप कहेंगे राजनीतिज्ञों का काम सम्भावनाओं के पीछे दौड़ना नहीं, वर्तमान और निकट भविष्य की समस्याओं को हल करना है। राजनीतिज्ञों के कर्तव्य क्या हैं, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता; लेकिन इतना तो सभी मानते हैं कि पथ्य, औषधि सेवन से अच्छा होता है। आपका केवल यही धर्म नहीं कि सरकार के सैनिक व्यय का समर्थन करें, बल्कि यह मन्तव्य आपकी ओर से पेश होना चाहिए! आप कहेंगे कि स्वयंसेवकों की सेना बढ़ायी जाय। सरकार को हाल के महा-संग्राम में इसका बहुत ही खेदजनक अनुभव हो चुका है। शिक्षितवर्ग, विलासप्रिय, साहसहीन और स्वार्थ-सेवी हैं। देहात के लोग शांतिप्रिय, संकीर्ण-हृदय (मैं भीरू न कहूँगा) और गृहसेवी हैं। उनमें वह आत्म-त्याग कहाँ, वह वीरता कहाँ, अपने पुरखों की वह वीरता कहाँ? और शायद मुझे यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि किसी शांतिप्रिय जनता को आप दो-चार वर्षों में रणकुशल और समर-प्रवीण नहीं बना सकते।
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