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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


हुजूर आजकल तो मटर की फसिल है और कोल्हू भी खड़े हो गये हैं। इसके सिवाय तो और कुछ भी नहीं है।’’

‘‘बस तो यही चीजें लाओ।’’

‘‘कुछ उल्टी-सीधी पड़ी तो आप ही को सँभालना पड़ेगा।’’

दूसरे दिन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के सिरों पर दो टोकरियाँ थीं। उनमें मटर की फलियाँ भरी हुई थीं। एक के सिर पर मटका था जिसमें ऊख का रस था। तीनों युवक ऊख का एक-एक गट्ठा काँख से दबाये हुए थे। गरीब आ कर चुपके से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। दफ्तर में उसे आने का साहस नहीं होता था मानो कोई अपराधी है। वृक्ष के नीचे खड़ा ही था कि इतने में दफ्तर के चपरासियों और अन्य कर्मचारियों ने उसे घेर लिया। कोई ऊख ले कर चूसने लगा। कई आदमी टोकरों पर टूट पड़े। इतने में बड़े बाबू भी दफ्तर में आ पहुँचे। यह कौतुक देख कर उच्च स्वर से बोले– यह क्या भीड़ लगा रखी है! चलो अपना-अपना काम देखो।

मैंने जा कर उनके कान में कहा–गरीब अपने घर से यह सौगात लाया है, कुछ आप लीजिए, कुछ हम लोगों को बाँट दीजिए।

बड़े बाबू ने कृत्रिम क्रोध धारण करके कहा–क्यों गरीब, तुम यह चीजें यहाँ क्यों लाये? अभी लौटा ले जाओ, नहीं तो मैं साहब से कह दूँगा। क्या हम लोगों को मरभुखा समझ लिया?

गरीब का रंग उड़ गया। थर-थर काँपने लगा। मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। मेरी ओर अपराधी नेत्रों से ताकने लगा।

मैंने उसकी ओर से क्षमा-प्रार्थना की। बहुत कहने-सुनने पर बाबू साहब राजी हुए। अब चीजों में से आधी अपने घर भिजवायीं, आधी में अन्य लोगों के हिस्से लगाये। इस प्रकार यह अभिनय समाप्त हुआ।

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