कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
इस प्रकार प्रेमलिप्सा बढ़ती गयी। उस नेत्रालिंगन में, जो मनोभावों का बाह्यरूप था, उद्विग्नता और विकलता की दशा उत्पन्न हुई वह दूजी, जिसे कभी मनिहारे और बिसाती की रुचिकर ध्वनि भी चौखट से बाहर न निकाल सकती थी, अब एक प्रेम-विह्वलता की दशा में प्रतीक्षा की मूर्ति बनी हुई घंटों दरवाजों पर खड़ी रहती। उस दोहे और गीतों में, जिन्हें वह कभी विनोदार्थ गाया करती थी, अब उसे विशेष अनुराग और विरह वेदना का अनुभव होता? तात्पर्य यह है कि प्रेम का रंग गाढ़ा हो गया।
शनैः-शनैः गाँव में चर्चा होने लगी। घास और कास स्वयं उगते हैं। उखाड़ने से भी नहीं जाते। अच्छे पौधे देख-रेख से उगते हैं। इसी प्रकार बुरे समाचार स्वयं फैलते हैं, छिपाने से भी नहीं छिपते। पनघटों और तालाबों के किनारे इस विषय पर कानाफूसी होने लगी। गाँव की बनियाइन, जो अपनी तराजू पर हृदयों को तोलती थी और ग्वालिन जो जल में प्रेम का रंग देकर दूध का दाम लेती थी और तम्बोलिन जो पान के बीड़ों से दिल पर रंग जमाती थी, बैठ कर दूजी की लोलुपता और निर्लज्जता का राग अलापने लगी। बेचारी दूजी को घर से निकलना दुर्लभ हो गया, सखी-सहेलियाँ एवं बड़ी-बूढ़ियाँ सभी उनको ताने मारतीं। सखी-सहेलियाँ हँसी से छेड़तीं और वृद्ध स्त्रियाँ हृदय विदारक व्यंग्यों से।
मर्दों तक बातें फैलीं। ठाकुरों का गाँव था। उनकी क्रोधाग्नि भड़की। आपस में सम्मति हुई कि ललनसिंह को इस दुष्टता का दंड देना उचित है। दोनों भाइयों को बुलाया और बोले–भैया, क्या अपनी मर्यादा का नाश करके विवाह करोगे?
दोनों भाई चौंक पड़े। उन्हें विवाह की उमंग में सुधि ही नहीं थी कि घर में क्या हो रहा है। शानसिंह ने कहा–तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ क्यों नहीं कहते।
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