कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
सूर्य की किरणें दूजी की आशाओं की भाँति कुहरा की घटाओं को हटाती चली जाती थीं। उसने अपने दुःख के मित्रों को अब पूर्ण नेत्रों से देखा। पुनः ढेरों के पास गयी, जो उसके चौदह वर्ष की तपस्या के स्मारक चिन्ह थे। उन्हें एक-एक कर चूमा, मानों वह देवी जी के चबूतरे हैं। तब वह रोती हुई चली जैसे लड़कियाँ ससुराल को चलती हैं।
संध्या समय अपने शहर में प्रवेश किया और पता लगाते हुए कैलासी के घर आयी। घर सूना पड़ा था। तब वह विनयकृष्ण बघेल का घर पूछते-पूछते उनके बँगले पर आयी। कुँवर महाशय टहल कर आये ही थे कि उसे खड़ी देखा। पास आये। उसके मुख पर घूँघट था दूजी ने कहा–महराज, मैं एक अनाथ दुखियाँ हूँ।
कुँवर साहब ने आश्चर्य से पूछा–तुम दूजी हो। तुम इतने दिनों तक कहाँ रहीं।
कुँवर साहब के प्रेम-भाव ने घूँघट और बढ़ा दिया। इन्हें मेरा नाम स्मरण है, यह सोच कर दूजी का कलेजा धड़कने लगा। लज्जा से सिर नीचे झुक गया। लजाती हुई बोली–जिसका कोई हितू नहीं है उसका वन के सिवा अन्यत्र कहाँ ठिकाना है। मैं भी वनों में रही। पयस्विनी नदी के किनारे एक गुफा में पड़ी रही।
कुँवर साहब विस्मित हो गये। चौदह वर्ष और नदी के किनारे गुफा में। क्या कोई संन्यासी इससे अधिक त्याग कर सकता है? वह आश्चर्य से कुछ न बोल सके।
दूजी उन्हें चुपचाप देख कर बोली–मैं कैलासी के घर से सीधे पर्वत में चली गयी और वहीं इतने दिन व्यतीत किए। चौदह वर्ष पूरे हो गए। जिन भाइयों की गरदन पर छुरी चलायी उनके छूटने के दिन अब आये हैं। नारायण उन्हें अब कुशलपूर्वक लावें। मैं चाहती हूँ कि उनके दर्शन करूँ और उनकी ओर से मेरे दिल में जो इच्छाएँ हैं। पूर्ण हो जायँ।
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