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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


बुलाकी–हाँ, और क्या, यही तो नारी का धरम है! अपना भाग सराहो कि मुझ-जौसी सीधी औरत पा ली। जिस पर बल चाहते हो, बिठाते हो। ऐसी मुँह-जोर होती तो तुम्हारे घर में एक दिन निबाह न होता!

सुजान–हाँ भाई वह तो मैं भी कह रहा हूँ कि तुम देवी थीं और हो। मैं तब भी राक्षस था और अब तो दैत्य हो गया हूँ। बेटे कमाऊ है, उनकी-सी न कहोगी तो क्या मेरी-सी कहोगी, मुझसे अब क्या लेना-देना है?

बुलाकी–तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और मैं झगड़ा बचाती हूँ कि चार आदमी हँसेगे। चलकर खाना खा लो सीधे से, नहीं तो मैं भी जाकर सो रहूँगी।

सुजान-तुम भूखी क्यों सो रहोगी? तुम्हारे बेटों की तो कमाई है। हां, मैं ही बाहरी आदमी हूँ!

बुलाकी-बेटे तुम्हारे भी तो हैं?

सुजान–नहीं, मैं ऐसे बेटों से बाज आया। किसी और के बेटे होंगे। मेरे बेटे होते, तो क्या मेरी यह दुर्गति होती?

बुलाकी–गालियाँ दोगे, तो मैं भी कुछ कह बैठूँगी। सुनती थी, मर्द बड़े समझदार होते हैं, पर तुम सबसे न्यारे हो। आदमी को चाहिए कि जैसा समय देखे वैसा काम करे। अब हमारा और तुम्हारा निबाह इसी में है। कि नाम के मालिक बने रहे और वही करे जो लड़कों की अच्छा लगे। मैं यह बात समझ गई, तुम क्यों नहीं समझ पाते? जो कमाता है, उसी का घर में राज होता है, यही दुनिया का दस्तूर है। मैं बिना लड़कों से पूछे कोई काम नहीं करती, तुम क्यों अपने मन की करते हो? इतने दिनों तो राज कर लिया, अब क्यों इस माया में पड़े हो? आधी रोटी खाओ भगवान् का भजन करो और पड़े रहो। चलो, खाना खा लो।

सुजान–तो अब मैं द्वार का कुत्ता हूँ?

बुलाकी–बात जो थी, मैंने कह दी अब अपने को चाहें जो समझो। सुजान न उठे। बुलाकी हारकर चली गई।

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