कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
‘तुम मेरे तरफ देखो तो, मैं ही तुम्हारा दास, उपवास, तुम्हारा पति हूँ।’
‘मेरे पति ने वीर-गति पायी।’
‘हाय कैसे समझाऊँ! अरे लोगों, किसी भाँति अग्नि को शांत करो। मैं रत्नसिंह ही हूँ प्रिये! क्या तुम मुझे पहचानती नहीं हो?’
अग्नि शिखा चिंता के मुख तक पहुँच गई। अग्नि में कमल खिल गया। चिंता स्पष्ट स्वर में बोली–खूब पहचानती हूँ। तुम मेरे रत्नसिंह नहीं, मेरा रत्नसिंह सच्चा शूर था, वह आत्म रक्षा के लिए, इस तुच्छ देह को बचाने के लिए, अपने क्षत्रिय-धर्म का परित्याग न कर सकता था। मैं जिस पुरुष के चरणों की दासी बनी थी। वह देवलोक में विराजमान है। रत्नसिंह को बदनाम मत करो। वह वीर राजपूत था, रणक्षेत्र से भागने वाला कायर नहीं।
अंतिम शब्द निकले ही थे कि अग्नि की ज्वाला चिंता के सर के ऊपर जा पहुँची। फिर एक क्षण में वह अनुपम रूप-राशि, वह आदर्श वीरता की उपासिका, वह सच्ची सती अग्नि-राशि में विलीन हो गई।
रत्नसिंह चुपचाप, हतबुद्वि-सा खड़ा यह शोकमय दृश्य देखता रहा। फिर अचानक एक ठंडी साँस खींचकर उसी चिता में कूद पड़ा।
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