कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
कजाकी डाकखाने में पहुँचता तो पसीने से तर रहता। लेकिन आराम करने की आदत न थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता। कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे, गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी और डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं। मैं वे कहानियाँ सुनकर विस्मय आनंद में मग्न हो जाता। उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखियों का पालन करते थे। मुझे उनपर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।
एक दिन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गई। सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई न दिया। मैं खोया हुआ सा सड़क पर दूर तक आँखें फाड़-फाड़कर देखता था, पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पड़ती थी; कान लगाकर सुनता था, ‘झुन-झुन’ की वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी। प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जा रही थी। उधर से किसी को आते देखता तो पूछता–कजाकी आता है? पर या तो कोई सुनता ही न था या केवल सिर हिला देता था।
सहसा ‘झुन-झुन’ की आवाज कानों में आई। मुझे अँधेरे में चारों ओर भूत ही दिखलाई देते थे; यहाँ तक कि माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अँधेरा हो जाने के बाद मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी। लेकिन वह आवाज सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा। हाँ, वह कजाकी ही था। उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, फिर मार करके अलग खड़ा हो गया।
कजाकी ने हँसकर कहा–मारोगे तो मैं एक चीज लाया हूँ, वह नहीं दूँगा।
मैंने साहस करके कहा–जाओ, मत देना। मैं लूँगा ही नहीं।
कजाकी–अभी दिखा दूँ तो दौड़कर गोद में उठा लोगे।
मैंने पिघलकर कहा–अच्छा, दिखा दो।
कजाकी–तो आकर मेरे कंधे पर बैठ जाओ, भाग चलूँ। आज बहुत देर हो गई है बाबूजी बिगड़ रहे होंगे।
मैंने अकड़ कर कहा–पहले दिखा दो।
मेरी विजय हुई। अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी रुक सकता तो शायद पाँसा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखलाई, जिसे वह एक हाथ से छाती से चिपटाए हुए था। लंबा मुँह था, दो आँखें चमक रही थीं।
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