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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


अम्माँ ने पूछा–कहाँ है कजाकी? जरा उसे बुला तो लाओ।

मैंने कहा–बाहर तो खड़ा है। कहता था, अम्माँजी से मेरा कहा-सुना माफ करवा देना।

अब तक अम्माँजी मेरे वृत्तांत को दिल्लगी समझ रही थीं। शायद वह समझती थीं कि बाबूजी ने कजाकी को डाँटा होगा; लेकिन मेरा अंतिम वाक्य सुनकर संशय हुआ कि सचमुच तो कजाकी बरखास्त नहीं कर दिया गया। बाहर आकर ‘कजाकी’ पुकारने लगीं। कजाकी का कहीं पता न था। मैंने बार-बार पुकारा लेकिन कजाकी वहाँ न था।

खाना तो मैंने खा लिया–बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने हो–मगर बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास रुपये होते तो एक लाख कजाकी को देता और कहता बाबूजी से कभी मत बोलना। बेचारा भूखों मर जाएगा। देखूँ, कल आता है कि नहीं। अब क्या करेगा आकर? मगर आने को तो कह गया है। मैं उसे कल अपने साथ खाना खिलाऊँगा।

यही हवाई किले बनाते-बनाते मुझे नींद आ गई।

दूसरे दिन मैं दिन-भर अपने हिरन के बच्चे की सेवा-सत्कार में व्यस्त रहा। पहले नामकरण-संस्कार हुआ! ‘मुन्नू’ नाम रखा गया। फिर मैंने उसका अपने सब हमजोलियों और सहपाठियों से परिचय कराया। दिन ही भर में वह मुझसे इतना हिल गया था। कि मेरे पीछे-पीछे दौड़ने लगा। इतनी ही देर में मैंने उसे अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया। अपने भविष्य में बननेवाले विशाल भवन में उसके लिए एक अलग कमरा बनाने का भी निश्चय कर लिया; चारपाई, सैर करने की फिटन आदि की भी आयोजना कर ली।

लेकिन संध्या होते ही मैं सब कुछ छोड़-छाड़कर सड़क पर जा खड़ा हुआ, और कजाकी की बाट जोहने लगा। जानता था, कि कजाकी निकाल दिया गया है अब उसे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं रही। फिर भी न-जाने क्यों मुझे यह आशा हो रही थी कि वह आ रहा है। एकाएक मुझे खयाल आया कि कजाकी भूखों मर रहा होगा। मैं तुरंत घर आया। अम्माँ दिया-बत्ती कर रही थीं। मैंने चुपके से एक टोकरी में आटा निकाला, और आटा हाथों में लपेटे, टोकरी से गिरते हुए आटे की एक लकीर बनाता हुआ भागा। आकर सड़क पर खड़ा हुआ था कि कजाकी सामने से आता दिखलाई दिया। उसके पास बल्लम भी था। कमर में चपरास भी थी। सिर पर साफा भी बँधा हुआ था। बल्लम में डाक का थैला भी बँधा हुआ था। मैं दौड़कर उसकी कमर से चिमट गया, और विस्मत होकर बोला–तुम्हें चपरास और बल्लम कहाँ से मिल गया, कजाकी?

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