कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
प्रणय की पहली रात थी। चारों ओर सन्नाटा था। केवल दोनों प्रेमियों के हृदयो में अभिलाषाएँ लहरा रही थीं। चारों ओर अनुरागमयी चाँदनी छिटकी हुई थी, और उसकी हास्यमयी छटा में वर और वधू प्रेमलाप कर रहे थे।
सहसा खबर आयी की शत्रुओं की एक सेना किले की ओर बढ़ी चली आती है। चिंता चौंक पड़ी; रत्नसिंह खड़ा हो गया, और खूँटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।
चिंता ने उसकी ओर कातर-स्नेह की दृष्टि से देखकर कहा–कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है?
रत्नसिंह ने बंदूक कंधे पर रखते हुए कहा–मुझे भय है कि अबकी वे लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं,
चिंता–तो मैं भी चलूँगी।
‘नहीं मुझे आशा है, वे लोग ठहर न सकेंगे! मैं एक ही धावे में उनके कदम उखाड़ दूँगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय रात्रि विजय रात्रि हो।’
‘न जाने मन क्यों कातर हो रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता!’
रत्नसिंह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिंता को गले लगा लिया, और बोले मैं सबेरे तक लौट आऊँगा प्रिये!
चिंता पति के गले में हाथ डालकर आँखो में आँसू भरे हुए बोली–मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज खबर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना। तुम्हारी आदत है कि देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना। जाओ जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह दिखाओ।
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