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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


‘किला बंद करके हम महीनों लड़ सकते हैं।’

‘तो जाकर लड़ो। मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।’

एक ओर अँधकार प्रकाश को पैरों–तले कुचलता चला आता था, दूसरी ओर विजयी मरहठे लहराते हुए खेतों को रौंदते चले आ रहे थे, और किले में चिता बन रही थी।

ज्यों ही दीपक जले, चिता में भी आग लगी। सती चिंता, सोलहों श्रृंगार किए अनुपम छवि दिखाती हुई, प्रसन्न-मुख अग्नि-मार्ग से पतिलोक की यात्रा करने जा रही थी।

चिंता के चारो ओर स्त्री और पुरुष जमा थे। शत्रुओं ने किले को घेर लिया है, इसकी किसी को फिक्र न थी। शोक और संताप से सबके चेहरे उदास और सिर झुके थे। अभी कल इसी आँगन में विवाह का मंडप सजाया गया था। जहाँ इस समय चिता सुलग रही है, वही कल हवनकुंड था। कल भी इसी भाँति अग्नि की लपटें उठ रही थीं, इसी भाँति लोग जमा थे। पर आज और कल के दृश्यों में कितना अंतर है! हाँ, स्थूल नेत्रों के लिए अंतर हो सकता है, वास्तव में यह उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है, उसी प्रतिज्ञा का पालन है।

सहसा घोड़े के टापों की आवाज़े सुनाई देने लगी। मालूम होता था, कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता चला आ रहा है। एक क्षण में टापों की आवाज बन्द हो गई और एक सैनिक आँगन में दौड़ा हुआ था पहुँचा। लोगों ने चकित होकर देखा–यह रत्नसिंह था !

रत्नसिंह चिंता के पास हाँफता हुआ बोला–प्रिये, मैं तो अभी जीवित हूँ, यह तुमने क्या कर डाला! चिता में आग लग चुकी थी! चिंता की साड़ी से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। रत्नसिंह उन्मत्त की भांति चिता में घुस गया, और चिंता का हाथ पकड़कर उठाने लगा। लोगो ने चारों ओर से लपक-लरककर चिता की लकड़ियाँ हटानी शुरू कीं। पर चिंता ने पति की ओर आँख उठाकर भी न देखा, केवल हाथों से उसे हट जाने का संकेत किया।

रत्नसिंह सिर पीटकर बोला–हाय प्रिये! तुम्हें क्या हो गया है? मेरी ओर देखती क्यों नहीं, मैं तो जीवित हूँ।

चिता से आवाज आयी–तुम्हारा नाम रत्नसिंह है, पर तुम मेरे रत्नसिंह नहीं हो।

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