कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
अतएव झींगुर ने खूब रब्त-जब्त बढ़ा लिया। एक दिन बुद्धू ने पूछा–क्यों झींगुर, अगर ऊख जलानेवाले को पा जाओ, तो क्या करो? सच कहना। झींगुर ने गम्भीर भाव से कहा–मैं उससे कहूँ, भैया, तुमने जो कुछ किया, बहुत अच्छा किया। मेरा घमंड तोड़ दिया, मुझे आदमी बना दिया।
बुद्धू–मैं जो तुम्हारी जगह होता, तो बिना उसका घर जलाए न मानता।
झींगुर–चार दिन की जिदंगी में वैर-विरोध बढ़ाने से क्या फायदा? मैं तो बरबाद हुआ ही, अब उसे बरबाद करके क्या पाऊँगा?
बुद्धू–बस, यही आदमी का धर्म है। पर भाई, क्रोध के बस में होकर बुद्धि उल्टी हो जाती है।
फागुन का महीना था। किसान ऊख बोने के लिए खेतों को तैयार कर रहे थे। बुद्धू का बाजार गरम था! भेड़ो की लूट मची हुई थी। दो-चार आदमी नित्य द्वार पर खड़े खुशामदें किया करते। बुद्धू किसी से सीधे मुँह बात न करता। भेड़ रखने की फीस दूनी कर दी थी। अगर कोई एतराज करता तो बेलाग कहता–तो भैया, भेड़ें तुम्हारे गले तो नहीं लगाता हूँ। जी न चाहे मत रक्खो। लेकिन मैंने जो कह दिया है, उससे एक कौड़ी भी कम नहीं हो सकती। गरज थी, लोग इस पर भी घेरे रहते थे, मानों किसी पंडे यात्री के पीछे पड़े हों।
लक्ष्मी का आकार तो बहुत बड़ा नहीं, और वह भी समयानुसार छोटा-बड़ा होता रहता है। यहाँ तक की कभी वह अपना विराट आकार समेटकर उसे कागज के चन्द अक्षरों में छिपा लेती है। कभी-कभी तो मनुष्य की जिह्वा पर जा बैठती है, आकार का लोप हो जाता है। किंतु उनके रहने को बहुत स्थान की जरूरत होती है। वह आयीं, और घर बढ़ने लगा। छोटे घर में उनसे नहीं रहा जाता। बुद्धू का घर भी बढ़ने लगा। द्वार पर बरामदा डाला गया, दो की जगह छः कोठरियाँ बनवाई गईं। यों कहिए कि मकान नए सिरे से बनने लगा। किसी किसान से लकड़ी माँगी, किसी से खपरों का आँवा लगाने के लिए उपले, किसी से बाँस और किसी से सरकंडे। दीवार की उठवाई देनी पड़ी। वह भी नकद नहीं, भेड़ों के बच्चों के रूप में हो गया। गृह प्रवेश के उत्सव को तैयारियाँ होने लगीं।
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