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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
गाँव के बहुत से बुढ्ढे जमा थे। उनमें से जगतसिंह बोले–तो क्यों बेटा? तुम इतने दिनों तक पादरियों के साथ रहे? उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा।?
साधो ने सिर झुकाकर कहा–जी हाँ, यह तो उनका दस्तूर ही है।
जगतसिंह ने जादोराय की तरफ देखकर कहा यह बड़ी कठिन बात है।
साधो बोला–बिरादरी मुझे जो प्रायश्चित बतलाएगी, मैं उसे करूँगा। मुझसे जो कुछ बिरादरी का अपराध हुआ है, नादानी से हुआ है लेकिन मैं उसका दण्ड भोगने के लिए तैयार हूँ।
जगतसिंह ने फिर जादोराय की तरफ कनखियों से देखा और गंभीरता से बोले–हिन्दू धर्म में ऐसा कभी नहीं हुआ है। यों तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के हो, मगर बिरादरी कभी इस काम में शरीक न होगी। बोलो जादोराय! क्या कहते हो, कुछ तुम्हारे मन की भी तो सुन लें?
जादोराय बड़ी दुविधा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीति थी, दूसरी ओर बिरादरी का भय मारे डालता था। जिस लड़के के लिए रोते-रोते आँखें फूट गईं, आज वही सामने खड़ा आँखों में आँसू भरे कहता है, पिताजी! मुझे अपनी गोद में लीजिए; और मैं पत्थर की तरह अचल खड़ा हूँ। शोक! इन निर्दयी भाइयों को किस तरह समझाऊँ, क्या करूँ, क्या न करूँ?
लेकिन मां की ममता उमड़ आयी। देवकी से न रहा गया। उसने अधीर होकर कहा–मैं अपने घर में रखूँगी और कलेजे से लगाऊँगी। इतने दिनों के बाद मैंने उसे पाया है, अब उसे नहीं छोड़ सकती।
जगतसिंह रुष्ट होकर बोले–चाहे बिरादरी छूट ही क्यों न जाए?
देवकी ने भी गरम होकर जवाब दिया–हाँ चाहे बिरादरी छूट ही जाए। लड़के-वालों ही के लिए आदमी बिरादरी की आड़ पकड़ता है। जब लड़का न रहा, तो भला बिरादरी किस काम आएगी?
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