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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे एक बहुत आबाद और उपजाऊ गाँव था। पंडितजी इस गाँव को लेकर नदी के किनारे पक्का घाट, मंदिर, मकान आदि बनवाना चाहते थे। पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब वह गाँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी। बैनामा लिखा गया। रजिस्टरी हुई। रुपये मौजूद न थे; पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहाँ से ३॰ हजार रुपये मँगवाए और ठाकुर साहब की नजर किए गए। हाँ, काम-काज की आसानी के ख्याल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की, क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिक थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और बिलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनाम लिये असीम आनन्द में मग्न भानुकुँवरि के पास आये। परदा कराया और यह शुभ समाचार सुनाया भानुकुंवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पंडितजी के नाम पर मंदिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।

मुंशीजी दूसरे दिन उस गांव में गये। असामी नजराने लेकर नए स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों ने नावों में बैठकर गंगा की खूब सैर की। मंदिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हटकर रमणीक स्थान चुना गया।

यद्यपि इस गाँव को अपने नाम से लेते समय मुंशीजी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो-चार दिनों में ही उसका अंकुर जम गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशीजी इस गाँव के आय-व्यय का हिसाब अलग रखते और अपनी स्वामिनी को उसका ब्यौरा समझाने की जरूरत न समझते। भानुकुँवरि भी इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी, पर दूसरे कारिंदों से ये सब बातें सुन-सुनकर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशीजी दगा तो न देंगे। वह अपने मन का यह भाव मुंशीजी से छिपाती थी, इस ख्याल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड्यंत्र न रचा हो।

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