कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
358 पाठक हैं |
मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
गुरदीन राम का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे ‘नौ नकद न तेरह उधार’ वाली कहावत अनुभवसिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्टभाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार से पछताने या उनमें संशोधन करने की जरूरत नहीं हुई।
मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़ी बेचैनी से अपने दरवाजों पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे! कई उत्साही लड़के पेड़ों पर चढ़ गए थे और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गाँव से बाहर निकल गए थे। सूर्य भगवान अपना सुनहरा थाल लिए पूरब से पच्छिम जा पहुँचे थे कि गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो और कोई अपने घर का न्यौता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन ने अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयों की लूट शुरू हो गई! बालकों स्त्रियों का ठट्ट लग गया हर्ष-विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या और जलन की नाट्यशाला सज गई।
कानूनदाँ बितान की पत्नी भी अपने तीनों लड़कों को लिये हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी-मीठी बात करनी शुरू की। पैसे झोली में रखे, धेले-धेले की मिठाई दी, धेले-धेले का आशीर्वाद। लड़के दोने लिये उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गाँव में कोई ऐसा बालक था, जिसमें गुरदीन की उदारता से लाभ न उठाया हो, तो वह बाकें गुमान का लड़का धान था।
यह कठिन था कि बालक धान आपने भाइयों, बहिनों को हँस-हँस और उछल उछलकर मिठाइयाँ खाते देखते और सब्र कर जाए। उस पर तुर्रा यह कि वह उसे मिठाइयाँ दिखा-दिखाकर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखता था और अपनी माता का आँचल पकड़-पकड़कर दरवाजे की तरफ खींचता था। पर वह अबला क्या करे? उसका हृदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठ कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठनियों की निठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पति के निखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुँह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते? उसने धान को गोद में उठा लिया और प्यार से दिलासा देने लगी–बेटा! रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा, तो मैं तुम्हें बहुत-सी-मिठाई ले दूँगी। मैं इससे अच्छी मिठाई बाजार से मँगवा दूँगी, तुम कितनी मिठाई खाओगे। यह कहते कहते उसकी आँख भर आयीं; आह! यह मनहूस मंगल आज फिर आवेगा और फिर यही बहाने करने पड़ेंगे! हाय! अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे और घर में किसी का पत्थर-सा कलेजा न पसीजे। वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी और धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, माँ की गोद से उतर कर जमीन पर लोटने लगा और रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। माँ ने बहुत बहलाया फुसलाया, यहाँ तक कि उसे बच्चे की हठ पर क्रोध आ गया। मानव हृदय के रहस्य कभी समझ नहीं आते। कहाँ तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, कहाँ ऐसी झल्लायी कि उसे दो तीन थप्पड़ जोर से लगाए और घुड़ककर बोली–चुप रह अभागे! तेरा ही मुँह मिठाई खाने का है, अपने दिन को नहीं रोता। मिठाई खाने चला है!
|