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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
बादशाह–(दीनता से) मैं वादा करता हूँ कि आइंदा से मैं आप लोगों को शिकायत का कोई मौका न दूँगा।
रोशनुद्दौला–नशेबाज के वादों पर कोई दीवाना ही यकीन कर सकता है।
बादशाह–तुम मुझे तख्त से जबरदस्ती नहीं उतार सकते।
रोशनुद्दौला–इन धमकियों की जरूरत नहीं। चुपचाप चले चलिए, आगे आपकी-सेज-गाड़ी मिल जायगी। हम आप को इज्जत के साथ रुखसत करेंगे।
बादशाह–आप जानते हैं, रियाया पर इसका क्या असर होगा?
रोशनुद्दौला–खूब जानता हूँ। आपकी हिमायत में एक उँगली भी न उठेगी। कल सारी सल्तनत में घी के चिराग जलेंगे।
इतनी देर में सब लोग उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ बादशाह को ले जाने के लिए सवारी तैयार खड़ी थी। लगभग पचीस सशस्त्र गोरे सिपाही भी खड़े थे। बादशाह सेज-गाड़ी को देखकर मचल गए। उनके रुधिर की गति तीव्र हो गई; भोग और विलास के नीचे दबी हुई मर्यादा सजग हो गई। उन्होंने जोर से झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और नैराश्यपूर्ण दुस्साहस के साथ, परिणाम-भय को त्यागकर उच्च-स्वर से बोले–ऐ लखनऊ के बसनेवालो, तुम्हारा बादशाह यहाँ दुश्मनों के हाथों कत्ल किया जा रहा है। उसे इनके हाथ से बचाओ, दौड़ो, वर्ना पछताओगे!
यह आर्त पुकार आकाश की नीरवता को चीरती हुई गोमती की लहरों में विलीन नहीं हुई; बल्कि लखनऊ वालों के हृदय में जा पहुँची। राजा बख्तावरसिंह बन्दीगृह से निकलकर नगरवासियों को उत्तेजित करते, और प्रतिक्षण रक्षाकारियों के दल को बढ़ाते, बड़े वेग से दौड़े चले आ रहे थे। एक पल का विलम्ब भी षड़यंत्रकारियों के घातक विरोध को सफल कर सकता था। देखते-देखते उनके साथ दो-तीन हजार सशस्त्र मनुष्यों का दल हो गया था। यह सामूहिक शक्ति बादशाह और लखनऊ-राज्य का उद्धार कर सकती थी। समय सब कुछ था। बादशाह गोरी सेना के पंजे में फँस गए, तो फिर समस्त लखनऊ भी उन्हें मुक्त न कर सकता था। राजा साहब ज्यों-त्यों आगे बढ़ते जाते थे, नैराश्य से दिल बैठा जाता था। विफल-मनोरथ होने की शंका से उत्साह भंग हुआ जाता था। अब तक कहीं उन लोगों का पता नहीं! अवश्य हम देर में पहुँचे। विद्रोहियों ने अपना काम पूरा कर लिया। लखनऊ राज्य की स्वाधीनता सदा के लिए विसर्जित हो गई।
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