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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


ऐ मुसाफिर, आनंदोत्सव समाप्त होने पर जब मैं बिदा होने लगी, तो रानी महोदया ने सजल नयन होकर कहा–बेटी, तूने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका फल तुझे भगवान देंगे। तूने मेरे राजवंश का उद्धार कर दिया, नहीं तो कोई पितरों को जल देने वाला भी न रहता। मैं तुझे कुछ विदाई देना चाहती हूँ; वह तुझे स्वीकार करनी पड़ेगी। अगर रणधीर मेरा पुत्र है, तो तू मेरी पुत्री है। तूने ही इस राज्य का पुनरुद्धार किया है। इसलिए माया-बंधन से तेरा गला नहीं छूटेगा। मैं अर्जुननगर का प्रांत उपहार स्वरूप तेरी भेंट करती हूँ।

रानी की यह असीम उदारता देखकर मैं दंग रह गई। कलियुग में भी कोई ऐसा दानी हो सकता है, इसकी मुझे आशा न थी। यद्यपि मुझे धन-भोग की लालसा न थी, पर केवल इस विचार से कि कदाचित् यह सम्पत्ति मुझे अपने भाइयों की सेवा करने की सामार्थ्य दे, मैंने एक जागीरदार की जिम्मेदारियाँ अपने सिर लीं। तब से दो वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, पर भोग-विलास ने मेरे मन को एक क्षण के लिए भी चंचल नहीं किया। मैं कभी पलंग पर नहीं सोयी। रूखी-सूखी वस्तुओं के अतिरिक्त, और कुछ नहीं खाया। पति-वियोग की दशा में स्त्री तपस्विनी हो जाती है, उसकी वासनाओं का अंत हो जाता है। मेरे पास कई विशाल भवन हैं, कई रमणीक वाटिकाएँ हैं; विषय-वासना की ऐसी कोई सामग्री नहीं, जो प्रचुर मात्रा में उपस्थित न हो, पर मेरे लिए सब त्याज्य है। भवन सूने पड़े हैं, और वाटिकाओं में खोजने से भी हरियाली न मिलेगी। मैंने उनकी ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखा। अपने प्राणाधार के चरणों से लगे हुए मुझे अन्य किसी वस्तु की इच्छा नहीं।

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