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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


माँ पुलकित हो रही थी। मुख से बात न निकलती थी।

एक क्षण के लिए विमल ने कहा–अम्माँ?

कंठ-ध्वनि ने उसका आशय प्रकट कर दिया।

माँ ने प्रश्न समझकर कहा–नहीं बेटा, यह बात नहीं है।

विमल–यह देखता क्या हूँ?

माँ–स्वभाव ही ऐसा है, तो कोई क्या करे?

विमल–सुरेश ने मेरा हुलिया क्यों लिखाया था?

माँ–तुम्हारी खोज लेने के लिए। उन्होंने दया न की होती, तो आज घर में किसी को जीता न पाते।

विमल–बहुत अच्छा होता।

शीतला ने ताने से कहा–अपनी ओर से तुमने सबको मार ही डाला था। फूलों की सेज बिछा गए थे न?

विमल–अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ।

शीलता–तुम किसी के भाग्य के विधाता हो?

विमलसिंह उठकर क्रोध से काँपता हुआ बोला–अम्माँ, मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में खून उतरता चला आता है। मैंने इस कुल-कलंकिनी के लिए तीन साल तक जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता; पर इसे न पा सका!

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