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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


यह कहकर सौदागर उसी तरफ चला गया, जिधर वे तीनों राजपूत गये थे। थोड़ी देर में और तीन आदमी सराफे में आये। एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था; सिर पर गोल पगिया थी, और कंधे पर जरी के काम का शाल। उसके दोनों साथी खिदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे, तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे, मानो किसी को खोज रहे हों। यों ताकते हुए तीनों आगे चले गए।

ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया। वहाँ एक छोटा-सा बाग था। एक पुरानी मस्जिद भी थी। सौदागर वहाँ ठहर गया। एकाएक तीनों राजपूत मस्जिद से बाहर निकल आये और बोले–हुजूर तो बहुत देर तक सराफ की दूकान पर बैठे रहे। क्या बातें हुईं?

सौदागर ने अभी जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों खिदमतगार भी आ पहुँचे। सौदागर ने पंडित को देखते ही भर्त्सनापूर्ण शब्दों में कहा–मियाँ रोशनुद्दौला, मुझे इस वक्त तुम्हारे ऊपर इतना गुस्सा आ रहा है कि तुम्हें कुत्तों से नुचवा दूँ! नमकहराम कहीं का! दगाबाज!! तूने मेरी सल्तनत को तबाह कर दिया! सारा शहर तेरे जुल्म का रोना रो रहा है! मुझे आज मालूम हुआ की तूने क्यों राजा बख्तावरसिंह को कैद कराया। मेरी अक्ल पर न जाने क्यों पत्थर पड़ गये थे कि मैं तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। इस नमकहरामी की तुझे वह सजा दूँगा कि देखने वाले को भी इबरत (शिक्षा) हो।

रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया–आप मेरे बादशाह हैं, इसलिए आपका अदब करता हूँ, वर्ना इसी वक्त बद-जबानी का मजा चखा देता। खुद आप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं, दूसरों को क्या गरज पड़ी है कि सल्तनत की फिक्र से दुबले हो। खूब, हम अपना खून जलावें और आप जशन मनावें। ऐसे अहमक कहीं और रहते होंगे!

बादशाह (कोध से काँपते हुए)–मि०…मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि इस नमक हराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता; और इसी वक्त जाकर इसकी सारी जायदात जब्त कर लो। इसके खानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पावे।

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