कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
|
93 पाठक हैं |
इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
दयाशंकर–यह कहो कि तुम मुझे तंग करना चाहती थी! नहीं तो, क्या आग या दियासलाई न मिल जाती?
सेवती–अच्छा; तुम मेरी जगह होते, तो क्या करते? नीचे सब-के-सब दूकानदार तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पण्डित जी रहते हैं। इनके घर में कोई स्त्री नहीं। सारे दिन फाग हुई है; बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे; दूसरी ओर बंगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियाँ किसी सम्बन्धी से मिलने गई थीं। और अब तक नहीं आयीं। इन दोनों घरों से भी बिना छज्जे पर आये, चीज न मिल सकती थी। लेकिन तुम शायद इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते। और कौन ऐसा था, जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो। महरी तुम्हारे सामने ही चौका बरतन करके चली गई। रह-रहकर तुम्हारे ही ऊपर क्रोध आता था।
दयाशंकर–तुम्हारी लाचारी का कुछ अनुमान कर सकता हूँ, पर मुझे अब भी यह मानने में आपत्ति है कि दियासलाई का न होना चूल्हा न जलने का वास्तविक कारण हो सकता है।
सेवती–तुम्हीं से पूछती हूँ कि बतलाओ क्या करती?
दयाशंकर–मेरा मन इस समय स्थिर नहीं है, किन्तु मुझे विश्वास है कि यदि तुम्हारे स्थान पर होता, तो होली के दिन और खासकर जब अतिथि भी उपस्थित हों,, चूल्हा ठंडा न रहता। कोई-न-कोई उपाय अवश्य ही निकालता।
सेवती–कैसे?
दयाशंकर–एक रुक्का लिखकर किसी दूकानदार के सामने फेंक देता।
|