कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
सत्यप्रकाश–मेरे नसीब खोटे हैं; और क्या!
ज्ञानप्रकाश–तुम लिखने पढ़ने में जी नहीं लगाते!
सत्यप्रकाश–लगता ही नहीं, कैसे लगाँऊ! जब कोई परवा नहीं करता तो मैं भी सोचता हूँ–ऊँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!
ज्ञानप्रकाश–मुझे भूल तो न जाओगे? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।
सत्यप्रकाश–तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्टी लिखूँगा।
ज्ञानप्रकाश–(रोते-रोते) मुझे न-जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है।
सत्यप्रकाश–मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा!
यह कहकर उसने फिर भाई को गले लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था।
सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस की मात्रा अधिक होती है। हवा में किले बना सकते हैं–धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्टसाध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बैग में लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहरों में जीविका का प्रश्न कठिन भी है, और सरल भी है, सरल है उनके लिए, जो हाथ से काम कर सकते हैं; सत्यप्रकाश मजदूरी करना नीच समझता था। उसने एक धर्मशाला में असबाब रखा। बाद में शहर में मुख्य-मुख्य स्थानों का निरीक्षण कर एक डाक-घर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया, और अपढ़ मजदूरों की चिट्ठियाँ, मनी-आर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा।
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