सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
भवानी– गाँव में आदमी कितने हैं?
प्रेम– दूसरे गाँव वाले तुम्हारे मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।
भवानी– जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।
प्रेम– रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो-तीन महीने में बाँध तैयार हो जायेगा। रुपयों का प्रबन्ध जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं कर दूँगा।
भवानी– आपका ही भरोसा है।
प्रेम– ईश्वर पर भरोसा रखो।
भवानी– मजदूरों की मदद मिल जाये तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है।
प्रेम– इसका मैं वचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीघे का अच्छा चक निकल आयेगा।
भवानी– तब हम आपका झोंपड़ा भी यहीं बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।
प्रेम– तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँव में भी खबर भेज दो।
१७
गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खितौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके में सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे असामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दों को जवाब दे दूँ? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होंगे? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हें अन्याय सहने की ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है, इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।
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